बृहस्पति


सिद्ध धर्म के अनुसार बृहस्पति जी को ‘महासिद्ध बृहस्पति नाथ’ कहा जाता है। बृहस्पति जी सारे देवताओं के गुरु थे । ऐसा माना जाता है कि, वो इतने अधिक बलशाली थे कि, उन्होंने इंद्र को भी कई बार युद्ध मे पराजित किया था। बहुत कम ज्ञात बात यह भी है कि, वो एक “योद्धा गुरु” थे और उन्होंने देवता तथा कई दैत्यों और दानवों को भी पराजित किया था। राक्षसों के ऊपर देवताओं का वर्चस्व बनाए रखने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। सामान्य जनमानस के लेखकों द्वारा उनको बहुत ही सौम्य स्वरूप में दर्शाया जाता है। परंतु, सिद्ध धर्म में इसकी विपरीत मान्यता है। वो एक योद्धा गुरु थे तथा कर्तव्य और धर्म के प्रति निष्ठावान थे। उन्होंने कभी भी स्वयं के भीतर के पशुत्व को स्वयं के भीतर के देवत्व पर हावी नहीं होने दिया।

सिद्घ धर्म के अनुसार वो ‘महर्षि अंगिरस नाथ जी’ के वंश से थे। उनको आगम, निगम, स्मृति तथा ग्रंथो की असामान्य समझ थी। इस कारण वे देवताओं के गुरु बने तथा वो भगवान शिव और माँ पार्वती के परम भक्त थे। उन्होंने बहुत सारा ज्ञान भगवान शिव और माँ पार्वती से प्राप्त किया। उन्होंने काफी सारा ज्ञान अपने पिता से भी प्राप्त किया।

सिद्ध धर्म के अनुसार ऐसा माना जाता है कि, उनका रंग हल्का पीला है। तथा वे भगवे रंग के वस्त्र परिधान करते है। इससे उनकी धर्म के प्रति एकनिष्ठता और पवित्रता सूचित होती है। ऐसा माना जाता है कि, वे अपने ‘बृहस्पति लोक’ में रहते है।

व्युत्पत्तिशास्त्र

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सिद्ध धर्म के अनुसार ‘बृहस्पति’ यह शब्द ‘बृहः’ और ‘पति’ इन दो शब्दों से मिलकर बना है। ‘ बृह’ शब्द का मतलब ‘महान’ और ‘पति’ शब्द का अर्थ ‘अधिपति’ अथवा ‘पारंगत’ ऐसा है। इन दोनों शब्दों को मिलाकर ‘बृहस्पति’ शब्द बना है। जिसका अर्थ ‘अनेक प्रकार के ज्ञान के अधिपति’ ऐसा होता है।

सिद्ध धर्म ऐसा मानता है कि, बृहस्पति इस शब्द का अर्थ ‘पारंगतों से भी अधिक पारंगत’ ऐसा है। बृहस्पति जी ने उनके जन्म के बाद ही कुछ प्रार्थनाओं का गायन शुरू किया था इस कारण भी उनके माता-पिता ने उनका नाम ‘बृहस्पति’ रखा।

सिद्ध धर्म की मान्यता के अनुसार उनको बहुत से ज्ञान शाखाओं में महारत हासिल होने के कारण उनको देवताओं के गुरु का पद दिया गया था। उनको सिर्फ आस्तिकता ही नही बल्कि नास्तिकता पर भी प्रभुत्व प्राप्त था। बृहस्पति जी को ‘वज्रयोग’ , ‘व्रतयोग’ जैसे योग परम्पराओं का भी ज्ञान था। यह ज्ञान उन्होंने इंद्र तथा अन्य देवताओं को भी सिखाया था।

स्थूल ‘ इहलोक ज्ञान’ अथवा नास्तिकता पर उनके कार्य के कारण भी बृहस्पति जी को जाना जाता है। अत्यंत भौतिकवादी ‘महर्षि चार्वाक नाथ’ भी उनकी ही परंपरा से थे।

ज्योतिष में भी बृहस्पति जी का महत्वपूर्ण स्थान है। वो सौभाग्य दर्शाते हैं। परंतु, सिद्ध धर्म की बृहस्पति जी के विषय में मान्यता आधुनिक ज्योतिष की मान्यताओं से मेल नहीं खाती। इस विषय मे हम आपको आगे बताएंगें।

बृहस्पति जी का वंश

सिद्ध धर्म के अनुसार , बृहस्पति जी को ‘महर्षि अंगिरा नाथ’ और ‘सुरूपा’ जी का पुत्र माना जाता है। सामान्य जनमानस में ऐसे कई ग्रंथ प्रचलित है जिनमें ‘स्मृति जी’ को बृहस्पति जी की माँ बताया गया है। परंतु, सिद्ध धर्म के अनुसार दोनों नाम एक ही स्त्री के है। महासिद्ध अंगिरस नाथ जी भगवान ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। इसी कारण बृहस्पति जी को भगवान ब्रह्मा जी के पौत्र माना जाता है।

सिद्ध धर्म के अनुसार बृहस्पति जी की चार पत्नियां थी। उनकी पत्नियों के नाम तारा, सुभा, ममता और सुनीति था । तारा जी को ही कुछ ग्रंथो में ‘तारका’ ऐसा लिख गया है। तारा जी को एक बेटी और सात पुत्र थे। उनके अग्रगण्य पुत्र ‘बुध’ ज्योतिष में काफी विख्यात है।

सुभा जी और बृहस्पति जी की सात बेटियाँ थी। तथा कोई पुत्र नहीं था। उनकी सात बेटियों के नाम भानुमति, राका, अर्चिष्मती, महामती, माहिष्मती, सिनीवली और हाविष्मती था । बृहस्पति और उनकी तीसरी पत्नी ममता जी के तीन पुत्र थे। उनके नाम ‘महर्षि (महासिद्ध) भारद्वाज नाथ’ और ‘महर्षि (महासिद्ध) कच नाथ‘ था । महर्षि भारद्वाज नाथ जी को सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। तथा वो महर्षि अंगिरस जी के वंशावली से है। महर्षि भारद्वाज नाथ जी के नाम पर एक गोत्र भी है। महासिद्ध द्रोणाचार्य नाथ और महासिद्ध अश्वत्थामा नाथ का गोत्र ‘भारद्वाज’ है।

कुछ ग्रंथो में महासिद्ध कच नाथ जी के बारे के ऐसा वर्णन है कि, बृहस्पति जी ने कच नाथ जी को ‘मृत संजीवनी विद्या’ सीखने के लिए ‘महर्षि शुक्राचार्य जी’ के पास भेजा था। शुक्राचार्य जी दैत्यों के गुरु थे तथा वो ज्ञान प्राप्त करने हेतु उनके पास आने वाले में किसी तरह का भेदभाव नहीं करते थे। इस कारण कच नाथ जी ने महर्षि शुक्राचार्य जी से ‘मृत संजीवनी विद्या ‘ प्राप्त की, तथा बृहस्पति जी भी ऐसा मानते थे कि ‘महर्षि शुक्राचार्य नाथ’ ही महर्षि कच नाथ को ‘मृत संजीवनी विद्या’ सीखानेे के लिए योग्य गुरु है। इसी विद्या की मदद से महासिद्ध कच नाथ जी ने देवों और दैत्य-दानवों के युद्ध के समय बृहस्पति जी को देवताओं की सहायता करने में मदद की थी। महासिद्ध बृहस्पति नाथ जी और उनकी चतुर्थ पत्नी सुनीति जी की कोई संतान नहीं थी। बृहस्पति जी के , ‘सामव्रत’ और ‘उत्ताथ्य’ नामक दो भाई थे। परंतु, उनकी ‘सामव्रत’ जी से नजदीकी नहीं रही

बृहस्पति जी के द्वारा स्थापित कुल तथा उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान

सिद्ध धर्म के अनुसार ‘बृहस्पति’ शब्द का अर्थ ‘ अनेकों विद्याओं के ज्ञाता’ ऐसा होता है। उन्होंने नीतिशास्त्र, वास्तुशास्त्र, धर्मशास्त्र, बृहस्पति स्मृति जैसे अनेक ग्रंथ लिखे । उन्होंने देवता और समाज के भलाई के लिए काफी ज्ञान दिया। आस्तिक कुल तथा नास्तिक कुल ( लोकायत) इन दोनों की स्थापना में उनका महत्वपुर्ण योगदान रहा। उनके द्वारा प्रदत्त दो अत्यंत महत्वपुर्ण कुलों के बारे में नीचे लिखा गया है।

बृहस्पति जी का नास्तिक कुल

सिद्ध धर्म की कथा के अनुसार, महागुरु शुक्राचार्य जी की तपस्या और मार्गदर्शन के कारण एक बार जब दैत्य देवताओं से भी अधिक शक्तिशाली बन गए, तब इस समस्या को हमेशा के लिये मिटाने के लिए देवता और देवगुरु बृहस्पति जी को एक नई योजना करने की आवश्यकता थी। जब-जब दैत्य और दानव युद्ध में मारे जाते, तब-तब महागुरु शुक्राचार्य जी अपनी तपस्या के बल और ‘मृत संजीवनी विद्या’ से दैत्यों और दानवों को फिर से जीवित करते थे। इस कारण दैत्यों और दानवों को मारना असंभव था क्योंकि, वो दैत्यगुरु शुक्राचार्य के द्वारा तपस्या के लिए मार्गदर्शित थे। दैत्य और दानव भगवान शिव और भगवान ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके देवताओं को हराने और स्वर्ग पर सत्ता प्राप्त करने हेतु वरदान प्राप्त करते थे। दैत्यों और दानवों से युद्ध करने में देवताओं को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । इस कारण, इस समस्या का स्थायी हल निकालने हेतु देवगुरु बृहस्पति जी ने ‘नास्तिक कुल’ की विचारधारा की योजना बनाई।

सिद्ध धर्म की एक कथा के अनुसार, जब दैत्यगुरु शुक्राचार्य अपनी तपस्या करने हिमालय पर्वत पर गए थे, तब उनके कट्टर प्रतिद्वंदी देवगुरु बृहस्पति जी ने शुक्राचार्य जी का रूप धारण किया। शुक्राचार्य जी का रूप धारण करके बृहस्पति जी दैत्यों और दानवों के पास गए। दैत्यों और दानवों इनके पास जाकर उनको शिव और शक्ति से विमुख करके उनका पतन करनेे हेतु बृहस्पति जी उनको ‘लोकायत’ की दीक्षा देना चाहते थे। ताकि, दैत्य और दानव भगवान शिव से वरदान प्राप्त करने के लिए तपस्या ही ना करे। बृहस्पति जी दैत्यों और दानवों को ऐसा बताना चाहते थे की ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान ही सत्य है। देवगुरु बृहस्पति जी के द्वारा ऐसा करने का उद्देश्य यह था की, दैत्य और दानव इन्द्रियों को संतुष्ट करने में लगे रहे और तपस्या से विमुख होकर सामर्थ्य प्राप्त ना कर पाए।

बृहस्पति जी ने दैत्यों और दानवों को दिया हुआ ज्ञान इस तरह से रचा था कि, दैत्य और दानव कभी सत्य ज्ञान प्राप्त न कर सके और तपस्या करके देवताओं के विरुद्ध युद्ध ना कर सके, इस प्रकार दैत्य-दानव इन्द्रियों की संतुष्टि के पीछे भागते रहे और स्वयं का ही विनाश कर ले। यही देवगुरु बृहस्पति जी की योजना थी।

बृहस्पति जी के 12 स्वरूप

सिद्ध धर्म कहता है की, अपने ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए बृहस्पति जी ने स्वयं के ही शरीर से स्वयं के बारह स्वरूप निर्मित किये। इस प्रकार निर्माण हुए 12 बृहस्पतियों ने अपने-अपने ज्ञान और विचारधारा को स्थपित किया। इन बारह में से 5 स्वरूप सात्विक, पाँच स्वरूप राजसिक और बाकी दो स्वरूप तामसिक है।

सिद्ध धर्मानुसार उन बारह बृहस्पतियों के नाम : लौक्य बृहस्पति, आंगिरस बृहस्पति, देवगुरु बृहस्पति, अर्थज्ञ बृहस्पति, कामज्ञ बृहस्पति, अवैदिक बृहस्पति, सतर्क बृहस्पति, प्रपंचशील बृहस्पति, दुरूह बृहस्पति, राजद्रोही बृहस्पति, अधृष्ट बृहस्पति और अमोक्षी बृहस्पति है।

सात्विक पाँच बृहस्पतियों ने बुद्धि, धर्म , बल, धन, स्वास्थ्य और ज्ञान इन विषयों का ज्ञान दिया। इन पाँच बृहस्पतियों ने यह बताया की, ईश्वर कभी किसी को कुछ अच्छा फल या दंड नहीं देता है। मनुष्य के कर्म ही मनुष्य को सुखद अथवा दुखद फल देते है। आगे उन्होंने यह भी कहा की, जिस ईश्वर को हम तलाश रहे है वो अन्य कोई नही बल्कि हम स्वयं है। इन पाँच सात्विक बृहस्पतियों ने मनुष्य के अस्तित्व को अदृश्य-अज्ञात ईश्वर से अधिक महत्वपुर्ण माना।

तामसिक स्वरूप धारी दो बृहस्पतियों ने तर्क और कुतर्क को सामने रखा। उन्हीं ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रधानता दी। तामसिक बृहस्पतियों ने महासिद्ध वात्स्यायन जी को ‘कामसूत्र’ का ज्ञान दिया। आगे चलकर वात्स्यायन जी ने इस पर और अनुसंधान करके ‘कामसूत्र’ का ज्ञान जनसाधारण को दिया।

अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, न्यायशास्त्र इन विषयों के ज्ञान को स्थपित करने का कार्य पाँच राजसिक स्वरूप के बृहस्पतियों ने किया।

सिद्ध धर्म मे ऐसा भी माना जाता है की, बृहस्पति जी ने देवी गायत्री जी के मस्तिष्क पर प्रहार किया और उनके सम्बन्धी सारे ज्ञान को ठुकरा दिया। इसके बाद उन्होंने ‘लौक्य’ विचारधारा को निर्मित किया और प्रचारित किया।

लौकिक विचारधारा

सिद्ध धर्म के अनुसार, ज्ञान के दो प्रकार है। प्रथम प्रकार को लौकिक ज्ञान कहा जाता है। इसी को विज्ञानवाद या नास्तिकता भी कहते है। आधुनिक संसार का ज्ञान भी लौकिकता के अंतर्गत आता है। ज्ञान के दूसरे प्रकार को ‘अलौकिक ज्ञान’ कहते है। अलौकिक ज्ञान को पराविज्ञान कहते है और यह आधुनिक जगत के मेटाफिजिक्स से थोड़ी मात्रा में मिलता जुलता है। अलौकिक ज्ञान की विचारधारा को ही आस्तिकता कहा जाता है।

लौकिक ज्ञान 12 बृहस्पतियों में से एक ‘लौक्य बृहस्पति जी’ द्वारा दिया गया है। इसी को बृहस्पति जी का लोकायत भी कहते है। लौकिक विचारधारा में वेदों को ज्ञान का असली स्त्रोत ना मानते हुए आत्मा के अस्तित्व को भी नकारा है। लौकिकता में स्थूल पदार्थ को ही परम सत्य माना जाता है। इस वजह से लौकिकता को स्थूलतावादी विचार माना जाता है। इसके अंतर्गत जिस पदार्थ का अनुभव इन्द्रियों के द्वारा किया जा सकता है, केवल उन्हीं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है। इसमें परम सत्य को सिर्फ इन्द्रियों से ही अनुभव किया जा सकता है ऐसा माना जाता है।

महासिद्ध चार्वाक नाथ का लोकायत

सिद्ध धर्म ऐसा मानता है की, महासिद्ध चार्वाक नाथ जी लौक्य बृहस्पति जी के शिष्य थे और लौकिकता को चरमोत्कर्ष पर पहुचाने में उनका महत्वपुर्ण योगदान रहा। महासिद्ध चार्वाक नाथ जी के नाम पर ‘चार्वाक उपनिषद’ नामक उपनिषद भी उपलब्ध है। चार्वाक नाथ जी का भौतिकवादी तत्त्वज्ञान इतना अधिक प्रसिद्ध हुआ कि, भारतीय तत्त्वज्ञान की पुनर्रचना करने वाले प्रमुख तत्त्वज्ञानों में उनका भौतिकवादी तत्त्वज्ञान समाविष्ट है। हम आपको यह भी बताना चाहेंगे कि, जैन, बौद्ध, आजीवक, अज्ञान और चार्वाक इन पाँच तत्त्वज्ञानों ने भारतीय तत्त्वज्ञान की पुनर्रचना की है। भौतिकवाद का अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘चार्वाक उपनिषद ‘ की कुछ पंक्तियां नीचे लिखी गयी है।

।।यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः

त्रयोवेदस्य कर्तारौ भण्डधूर्तनिशाचराः ।।

इन पंक्तियों का शब्दार्थ यह है की, “जब तक आप जिओ, सुखी जिओ, ऋण लेकर भी घी पिओ । (क्योंकि) भस्मीभूत देह का पुनरागमन कैसा ? वेदत्रयी के रचनाकार भांड, धूर्त और निशाचर है ।“

सिद्ध धर्मानुसार , महासिद्ध चार्वाक नाथ अत्यंत विलासवादी और लोकायत थे और उन्होंने बृहस्पति जी के लोकायत को आगे बढ़ाया। उनके मतानुसार इन्द्रियों से अनुभव होने वाला सुख ही स्वर्ग और शारीरिक वेदना ही नरक है। इन्द्रियजन्य सुखों को प्राप्त करना और शरीर की वेदनाओं को कम करना अथवा रोकना ही उनका तत्त्वज्ञान है।

महासिद्ध चार्वाक कहते है कि, पैसे उधार लेकर भी घी खाना चाहिये। दूध का सबसे अच्छा उत्पाद ‘घी’ है। दूध को बहुत अधिक मथने पर घी प्राप्त होता है। यह एक अत्यंत राजसिक खाद्य पदार्थ है और महासिद्ध चार्वाक नाथ जी ने उधार पैसे लेकर भी घी खाने की सलाह दी है।

आधुनिक समाज में पायी जाने वाली ‘क्रेडिट कार्ड’ की प्रणाली भी महासिद्ध चार्वाक नाथ जी के विलासवादिता का ही परिणाम है। लोग छोटी-छोटी चीजों के लिए क्रेडिट कार्ड लेते है। और स्वयं के जीवन मे सबसे अच्छी वस्तु प्राप्त करना चाहते है।

बृहस्पति जी का आस्तिक कुल

बृहस्पति जी समाज को भ्रमित करने हेतु नास्तिकता को बढ़ाने वाले रहे है फिर भी आस्तिकता में भी उनका बड़ा योगदान रहा है। वे देवताओं के गुरु थे और उनकी शक्ति परम आस्तिक कुल के ज्ञान में ही थी जिसका ज्ञान उन्होंने देवताओं को दिया था।

सिद्ध धर्म के अनुसार आस्तिक कुल की विचारधारा को ही पराविज्ञान और अलौकिक कहते है। यह भौतिकशास्त्र के परे का विषय है जो आधुनिक जगत के मेटाफिजिक्स से थोड़ी मात्रा में मेल खाता है, क्योंकि भौतिकशास्त्र स्थूल पदार्थ से संबंधित है और मेटाफिसिक्स स्थूल पदार्थ के परे की खोज कर उसके सार तत्व को समझने की कोशिश करता है। मेटाफिजिक्स इन्द्रियजन्य विज्ञान के परे का विषय है। क्योंकि वो इन्द्रयों द्वारा प्राप्त ज्ञान के परे जाने की चेष्ठा करता है।

सिद्ध धर्म के अनुसार आस्तिक कुल को समझना नास्तिक कुल की अपेक्षा काफी क्लिष्ट और कठिन है। क्योंकि, नास्तिक कुल इन्द्रियजन्य ज्ञान पर विश्वास करता है जिसे प्राप्त करने के लिए किसी तरह के तप की जरूरत नही होती है। परंतु, जब इन्द्रियजन्य ज्ञान के परे को खोज करने की बात आती है तब ‘तपस्या’ एक अहम मुद्दा है। इंद्रियों के पार जाने के लिए तपस्या की जरूरत होती है क्योंकि, पंचकोशों के पार जाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। इन्द्रियजन्य ज्ञान स्वयं ही स्वयं का अनुभव कराता है। परंतु, अलौकिक ज्ञान तपस्या की गहराई से प्राप्त होता है। आत्मा और पुनर्जन्म जैसे संकल्पनाओं की जानकारी सिर्फ आस्तिक कुल के द्वारा ही प्राप्त होती है। क्योंकि, उसके लिये इन्द्रिय, शरीर और मन के पार जाना होता है।

सिद्ध धर्म के अनुसार, आस्तिक कुल के कुछ महत्वपुर्ण विचार नीचे दिए हुए है

आस्तिक कुल के अनुयायी को ईश्वर के अस्तित्व पर गहरा विश्वास होना चाहिए।
तर्क मन के द्वारा संचालित होता है इसलिए सबसे पहले तर्क से परे सोचना चाहिए। तर्क के पार जाना ही मन के पार जाने का प्रथम चरण है। अति तर्क हमेशा संशयी प्रवृत्ति का उदय करता है। इस कारण आस्तिकवाद तर्क से दूर रहना सिखाता है।
अस्तिक कुल स्थूल पदार्थ को ही परम सत्य नहीं मानता तथा आत्मा की संकल्पना को बढ़ावा देता है।
आस्तिक कुल अनंत काल तक आत्मा के अस्तित्व को मानता है। आत्मा को अनंत काल तक स्थायी रहने वाला माना गया है। तथा मात्र शरीर की मृत्यु होती है ऐसा माना गया है। आत्मा नित्य स्थित है और शरीर का स्वरूप-आकार बदलता है ऐसा माना गया है।
आस्तिक कुल पुनर्जन्म की संकल्पना पर गहरा विश्वास करता है। सिर्फ शरीर की मृत्यु होती है तथा आत्मा नित्य है ऐसा माना गया है। अस्तिक कुल अवतारवाद को मानता है। क्योंकि, आस्तिक कुल की मान्यतानुसार चेतना एक नए शरीर की खोज करती है और मनुष्य रूप में जन्म ले सकती है।

बृहस्पति जी और महर्षि शुक्राचार्य के बीच संबंध

सिद्ध धर्म के अनुसार महासिद्ध बृहस्पति नाथ और महासिद्ध शुक्राचार्य नाथ एक दूसरे के कट्टर प्रतिस्पर्धी थे। सिर्फ कुछ समय के अलावा उनका पूरे जीवन में कभी भी आपस मे जमा नहीं। बृहस्पति जी आस्तिक थे तथा उन्होंने अपने लोक में ईश्वर को महत्व दिया। वे वेद तथा भगवान शिव और पार्वती के आगम-निगमों के प्रति निष्ठावान थे। वे ब्रह्मा जी के पौत्र थे। प्रजापतियों के प्रगति के लिये वो गायत्री उपासना किया करते थे। सिर्फ दैत्यों और दानवों को भ्रमित करने के लिए ही उन्होंने गायत्री पर प्रहार किया था। दैत्यों का विश्वास पाने के लिये उन्होंने ऐसा किया और उससे दैत्यों की दुर्गति हुई।

महर्षि भृगु नाथ के बेटे महासिद्ध शुक्राचार्य नाथ भी बृहस्पति जी से कम नही थे। उनको देवताओं ने अस्वीकार किया था इसी से दुखी होकर वो दैत्यों और दानवों के गुरु बने। उन्हीं के कारण दैत्य और दानव बहुत शक्तिशाली बनते थे और हमेशा देवताओं के लिए समस्या खड़ी करते थे। उनके शिष्य ‘महासिद्ध जालंधर नाथ’ इतने अधिक शक्तिशाली बन गए थे कि, माना जाता है कि, उन्होंने अपनी ‘वृंदा’ नामक शक्ति से भगवान शिव को भी युद्ध में पराजित किया था।

बृहस्पति और शुक्राचार्य जी दोनों एक दूसरे के विरोधी थे। परंतु, जब बृहस्पति जी ने आस्तिकता को ठुकराकर नास्तिकता को महत्व दिया तब उन दोनों ने साथ साथ कार्य किया। जब बृहस्पति जी ने वेदमाता गायत्री पर प्रहार किया तब शुक्राचार्य जी उनसे बहुत प्रसन्न हुए। उसके पश्चात दोनों ने साथ मिलकर ‘प्रवंचन शास्त्र’ नामक नए शास्त्र का निर्माण किया।

बृहस्पति जी ने अपने पुत्र कच नाथ जी को ‘मृत संजीवनी विद्या’ सीखने के लिये शुक्राचार्य जी के पास भेजा था। इसी विद्या का ज्ञान प्राप्त कर के कच नाथ जी ने दैत्यों और देवों के युद्ध के दौरान बृहस्पति जी को देवताओं की मदद करने में साथ दिया था।

ज्योतिषशास्त्र की कुछ गलत धारणाएं

सिद्ध धर्म ऐसा मानता है कि, बृहस्पति जी और उनके शिष्य चंद्र जी इन दोनों के बीच के संबंध को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है। चंद्र जी और उनके गुरु बृहस्पति जी की पत्नी तारा जी के बारे में ज्योतिषाचार्य गलत वृत्तांत प्रस्तुत करते है।

महासिद्ध बुध नाथ जी बृहस्पति जी की पत्नी तारा जी तथा चंद्र जी के पुत्र थे इस बात को सिद्ध धर्म नहीं मानता। अपितु, बुध जी स्वयं बृहस्पति जी के ही पुत्र थे।

सिद्ध धर्म की कथा के अनुसार, ‘वितल’ लोक में ‘तीक्ष्ण हस्त’ नामक एक दैत्य हुआ। तीक्ष्ण हस्त ने भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु से कठोर तप किया। जब भगवान शिव उसके सामने प्रकट हुए तब उसने बृहस्पति जी को पराजित करने में सफल होने का वर मांगा। तीक्ष्ण हस्त का उद्देष्य था की, बृहस्पति जी को सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया जाए ताकि उनको एक दुर्गति को प्राप्त हुए जीव की तरह मृत्यु प्राप्त हो। वो बृहस्पति जी को इस तरह से अपमानित करना चाहता था कि, त्रिलोक में सब उनका तिरस्कार करे।

वर प्राप्त होने के बाद ‘तीक्ष्ण हस्त’ ने बृहस्पति जी से युद्ध किया। इस दैत्य को भगवान शिव के द्वारा वरदान प्राप्त है इस बात को जानने के बाद बृहस्पति जी ने कोई हथियार नहीं उठाया और शरणागत हो गए। जब तीक्ष्ण हस्ती के द्वारा बृहस्पति जी को पकड़ा गया तब उनकी पत्नी तारा जी गर्भवती थी और उनके पुत्र बुध तारा जी के गर्भ में थे। उस दौरान चंद्र जी भी तारा जी के साथ थे। चंद्र जी के मन मे बृहस्पति जी और उनकी पत्नी तारा जी के प्रति बहुत अधिक प्रेम था।

चंद्र जी ‘तीक्ष्ण हस्ती’ को प्राप्त हुए वरदान के बारे में जानते थे। उन्होंने ‘तीक्ष्ण हस्ती’ को भ्रमित करने की योजना बनाई। फिर चंद्र जी ने तारा जी को भी अपनी योजना के बारे में बताया। चंद्र जी ने ऐसी अफवाह फैलाई कि, ‘जब बृहस्पति जी को बंदी बनाया गया तब तारा जी और चन्द्र जी ने सहवास किया।’ जब यह अफवाह तीक्ष्ण हस्ती के कानों तक पहुंची तब वो बहुत खुश हुआ। वो बृहस्पति जी को अपमानित करना चाहता था और चंद्रमा की इस हरकत से उसे अपना बदला पूरा होने का अनुभव हुआ। परंतु, उसे यह नही पता था कि चंद्र जी ने ऐसी अफवाह उसे भ्रमित करने की लिए ही फैलायी थी।

बृहस्पति जी को इस बात का पता चला। उनका अपने शिष्य और पत्नी पर गहरा विश्वास था, परंतु, बृहस्पति जी और सारे देवता शांत रहे। इसके पश्चात दैत्यों ने बृहस्पति जी को जगत की ओर से अपमान सहने के लिए मुक्त किया। तब बृहस्पति जी ने बुध को अपना पुत्र मान लिया। बृहस्पति जी ने अपना सम्मान बचाने के लिए बुध को अपना पुत्र माना ऐसा समझकर दैत्य उनपर हँसे। तदनंतर, बृहस्पति जी ने अपने पुत्र बुध जी को स्वयं की उन्नति और दैत्यों को भ्रमित करने के लिए तपस्या करने के लिए कहा। बुध जी अपने पर लगा हुआ अनैतिक संतान होने का कलंक मिटाने के लिए भी तापस्यारत हो गए। यह सारी योजना अत्यंत सटीकता से बनाई गयी। इस कारण, दैत्य कभी भी सच को जान नहीं पाए और अपने ही भ्रम में खुश रहे। सिद्ध धर्म मानता है की, इस तरह दैत्य भ्रमित रह गए। इस तरह सिद्ध धर्म मानता है कि, बुध जी की चंद्रमा और तारा जी के पुत्र होने की बात पूरी तरह असत्य है। इस तरह की अफवाह सिर्फ दैत्यों को भ्रमित करने के लिए फैलाई गयी थी और समाज भी भ्रमित हो गया।इसतरह ज्योतिषशास्त्र में लिखी गयी बातें पूरी तरह असत्य और गलत है

शास्त्र

सिद्ध धर्म के अनुसार बृहस्पति जी सिर्फ विद्वान ही नही बल्कि एक योद्धा गुरु है। ऐसा माना जाता है कि, वो बुद्धि और ज्ञान के देवता है। बृहस्पति जी के अलग अलग स्वरूप बताए गए है।

सात्विक स्वरूप

सात्विक स्वरूप में उनका रंग और वेशभूषा हल्के पीले और भगवे रंग के है। इस स्वरूप में उनके चार हाथ है। एक हाथ मे दंड, दूसरे हाथ मे रुद्राक्ष माला, तीसरे हाथ मे कमंडलु और चौथा हाथ वर मुद्रा में है। उनके सात्विक स्वरूप में उनको एक तपस्वी दर्शाया गया है।

राजसिक स्वरूप

बृहस्पति जी का दुसरा स्वरूप राजसिक है। इस स्वरूप में भी उनके चार हाथ है। इस स्वरूप में उनके हाथों में सोने की कुल्हाड़ी, धनुष, बाण है तथा चौथा हाथ वर मुद्रा में है। इस स्वरूप में वे पद्मासन में बैठे है तथा उन्होंने सुंदर आभूषण पहने हुए है। इस स्वरूप में वो एक योद्धा गुरु होने के साथ देवताओं के गुरु भी है इसकारण उनके आभूषण अत्यंत सुंदर है। यह बात राजसिकता के चरमोत्कर्ष को दर्शाती है। अपने तपस्या के आधार पर बृहस्पति जी वरदान भी दे सकते है। सामान्य जनमानस में बृहस्पति जी का जो स्वरूप है उसमें, उनके एक हाथ में शंख, दूसरे में चक्र है। तीसरा हाथ वर मुद्रा में तथा चतुर्थ हाथ अभय मुद्रा में है। परंतु, यह स्वरूप सिद्ध धर्म के अनुसार नहीं है क्योंकि उनको इसमें बहुत ही साधारण दिखाया गया है।

तामसिक स्वरूप

बृहस्पति जी का तीसरा स्वरूप तामसिक है। इस स्वरूप में वे एक योद्धा है तथा सुवर्ण रंग के रथ पर विराजमान है। यह रथ आठ हल्के लाल रंग के घोड़े खींचते है। इस स्वरूप में उनके चार हाथ है। इस स्वरूप में उन्होंने एक हाथ से घोड़ों की लगाम थाम रखी है। दूसरे हाथ में सोने की कुल्हाड़ी है। तीसरे हाथ मे धनुष और चौथे हाथ मे बाण है। इस स्वरूप में वो युद्ध के लिए तैयार है। यह स्वरूप दर्शाता है कि, धर्म की बाहरी तत्वों से रक्षा करने के लिये वो सज्ज है। उनका सुवर्ण रथ सूर्य की तरह तेजस्वी है।

बृहस्पति कल्प और उसका कोर्स

सिद्ध धर्म के अनुसार, ‘बृहस्पति कल्प’ यह बृहस्पति जी के द्वारा किया गया सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। बृहस्पति कल्प को गहराई से समझने के बाद बृहस्पति जी के सम्पूर्ण कुलों को समझना संभव है। उसमें उपर दिए गए सारे विषयों का गहन ज्ञान है।

सिद्ध धर्म के अनुसार, ‘बृहस्पति जी के आस्तिक और नास्तिक दोनों दर्शनों के लिये ‘बृहस्पति कल्प’ सर्वोच्च ग्रंथ है। बृहस्पति कल्प को समझने के लिए एक व्यक्ति को पहले उसके आधार में स्थित लौकिक और अलौकिक कुल और विचारधारा को समझना होगा। प्रमुख कुल और प्राथमिक विचारधाराओं में पारंगत होने पर ही कोई व्यक्ति बृहस्पति कल्प में पारंगत हो सकता है।

बृहस्पति कल्प के पांच खंड है और उन्ही को और अधिक स्पष्ट करने के लिये उपखंड भी है। तथा ‘आंतरराष्ट्रीय कौलान्तक सिद्ध विद्यापीठ’ भी बृहस्पति कल्प पर आधारित सात दिनों का कोर्स आयोजित करता है।

बृहस्पति कल्प के खंड और उसके उपखंडों के बारे में नीचे लिखा गया है

बृहस्पति कल्प खण्ड-1

-बृहस्पति योग आगम

-योग की उत्पत्ति

-108 योगों में श्रेष्ठ योग कौन ?

-योग के उपयोगी और अनुपयोगी भाग

-समाधी और पूर्णता में अंतर

-बृहस्पतिकृत योग ‘क्रिया योग’ का सार

-क्रिया योग और कुण्डलिनी

-क्रिया योग के उपप्रकार

-क्रिया योग की विधियां

-क्रिया योग की उपलब्धि

-क्रिया समाधी

खण्ड-2

बृहस्पति दर्शन

देवगुरु के 12 स्वरुप और आवश्यकता

-सत्व गुण, सत्व सृष्टि और सात्विक मनुष्य

-रजस् गुण, रजस् सृष्टि और राजसिक मनुष्य

-तमस् गुण, तमस् सृष्टि और तामसिक मनुष्य

-मनुष्य : आत्मा या शरीर ?

-ब्रह्माण्ड में अकेला या परित्यक्त?

-मनुष्य का प्रकृति पर अधिकार

-आवश्यकताएं और नियम

-मनुष्य के लिए सर्वोपरि नियम

उपखण्ड-1

-आस्तिक दर्शन

-आस्तिकता क्या है?

-आस्तिक क्यों हों?

-आस्तिकता का अंत कहाँ है?

-आस्तिकता गुण या दोष?

-मनुष्य आस्तिक क्यों नहीं हैं?

-आस्तिकता के प्रयोग

-क्या आस्तिकता मृत्यु के पार ले जाती है?

-क्या आस्तिकता से सत्य मिलता है?

-आस्तिकता का सार

उपखण्ड-2

-नास्तिक दर्शन

-नास्तिकता क्या है?

-नास्तिक क्यों हों?

-नास्तिकता का अंत कहाँ है?

-नास्तिकता गुण या दोष?

-मनुष्य नास्तिक क्यों नहीं हैं?

-नास्तिकता के प्रयोग

-क्या नास्तिकता मृत्यु के पार ले जाती है?

-क्या नास्तिकता से सत्य मिलता है ?

-नास्तिकता का सार

खण्ड-3

-कर्मकाण्ड

-कर्मकाण्ड क्या है?

-कर्मकाण्ड की कितनी उपयोगिता?

-कर्मकाण्ड के गुण और दोष

-कर्मकाण्ड और देश, काल, परिस्थिति

-कर्मकाण्ड के नियम

-कर्मकाण्ड का परिचय

उपखण्ड-1

-वैदिक कर्मकाण्ड का परिचय

-वैदिक कर्मकाण्ड की शैली

-वैदिक कर्मकाण्ड के मंत्र

-वैदिक कर्मकाण्ड के यन्त्र

-वैदिक कर्मकाण्ड के गुण दोष

-वैदिक कर्मकाण्ड का सार

उपखण्ड-2

-(तान्त्रिक) अवैदिक कर्मकाण्ड का परिचय

-(तान्त्रिक) अवैदिक कर्मकाण्ड की शैली

-(तान्त्रिक) अवैदिक कर्मकाण्ड के मंत्र

-(तान्त्रिक) अवैदिक कर्मकाण्ड के यन्त्र

-(तान्त्रिक) अवैदिक कर्मकाण्ड के गुण दोष

-(तान्त्रिक) अवैदिक कर्मकाण्ड का सार

उपखण्ड-3

-अकुल कर्मकाण्ड का परिचय

-अकुल कर्मकाण्ड की शैली

-अकुल कर्मकाण्ड के मंत्र

-अकुल कर्मकाण्ड के यन्त्र

-अकुल कर्मकाण्ड के गुण दोष

-अकुल कर्मकाण्ड का सार

खण्ड-4

-पुराण और तंत्र विरोध मार्ग क्यों?

-सत्य कौन पुराण या तंत्र?

उपखण्ड-1

पुराणिक कोष

-पुरातन ज्ञान क्यों आवश्यक?

-इतिहास कितना सत्य और असत्य?

-षडयंत्र और क्षात्र वासना

-षडयंत्र और दुर्बुद्धि वासना

-तथ्य और जनप्रसार

-रणनीति, कुप्रचार और असत्य

-जीवन के दुःख और उनका उपयोग

-हृदय, 5 विकार और षडयंत्र

उपखण्ड-2

-तांत्रिक कोष

-तांत्रिक होना क्यों आवश्यक?

-इतिहास निर्माण क्या है?

-सिद्धि क्या है और इसका महत्त्व क्या है?

-सिद्धि और छल में क्या समानता और असमानता?

-जीवन क्या है प्राप्ति या त्याग?

-तांत्रिक षट्कर्म आवश्यक और दोषपूर्ण क्यों?

-मनुष्य अतृप्त क्यों?

खंड-5

काम्य प्रयोग और चिकित्सा

–तांत्रिक विधि

–वैदिक विधि

–देह और स्वास्थ्य

–देह और सौंदर्य

–देह और वासनाएं

–वासनापूर्ती और वासना त्याग

–काम क्या है?

–काम की सीमा क्या है?

–कामवासना पाप या पुण्य?

–वासना का मनोलोक

–गृहस्थ धर्म, आकर्षण और पाप

–नियोग, वैश्यावृत्ति और प्रेम सम्बन्ध

–जीवन दर्शन का सार

–मृत्यु की प्रतीक्षा

‘बृहस्पति’ नामक पदवी

सिद्ध धर्म के अनुसार, बृहस्पति एक व्यक्ति का नाम तथा एक पदवी का नाम भी है। प्रथम बृहस्पति ने एक स्तर बनाया। उनके बाद जिस-जिस व्यक्ति ने उस अवस्था को प्राप्त किया उन सभी को ‘बृहस्पति’ कहते है। इस संकल्पना को ‘शिव’, और ‘शक्ति’ की संकल्पना से समझते है।

शिव यह शब्द ‘शव’ और ‘इ’ इन दो शब्दों से बना है। इसका अर्थ यह है कि, शिव से शक्ति अलग करने पर वो मात्र ‘शव’ रह जाते है। इस प्रकार, शिव एक ऐसा व्यक्तित्व है जो शक्ति के नियंत्रणकर्ता है। शिव कभी भी शक्तिरहित नही हो सकते। अन्यथा उनको शव माना जाएगा। ‘रुद्र जी’ प्रथम शिव माने गए। उसके बाद जिन-जिन सिद्धों ने उस अवस्था को प्राप्त किया उन सभी को ‘शिव’ कहा जाता है। इस प्रकार, शिव एक नाम ही नहीं बल्कि एक पदवी भी है। इसी प्रकार, ‘बृहस्पति’ सिर्फ एक मनुष्य ना होकर एक पदवी है।

सिद्ध धर्म के अनुसार, जो भी व्यक्ति बृहस्पति कल्प में निपुणता प्राप्त करता है, उसको ‘बृहस्पति’ की पदवी प्राप्त होती है। जैसे कि, ऊपर लिखा गया है, बृहस्पति कल्प में नास्तिकता , आस्तिकता तथा वेद, तंत्र औए पुराण भी है। बृहस्पति कल्प में पारंगत होने का तात्पर्य आस्तिकता, नास्तिकता, वेद, पुराण, कर्मकांड, तंत्र इन सभी में पारंगत होने से है।

बृहस्पति पदवी से आभूषित व्यक्ति को लौकिकता और अलौकिकता में पारंगत होना आवश्यक है। ऐसा ‘बृहस्पति’ आस्तिक या नास्तिक नहीं होता, अपितु, मध्य मार्ग चुनता है। उनका दर्शन राजसिक मार्ग को चुनकर जीवन और साधना में उन्नति करने के बारे में है।

ज्योतिष में बृहस्पति जी को सिर्फ एक ग्रह माना जाता है यह उनको ठीक से ना समझने का परिणाम है। ‘बृहस्पति ग्रह’ के द्वारा ‘बृहस्पति जी’ की उपासना की जाती है। ‘बृहस्पति जी’, और ‘बृहस्पति ग्रह’ में सिर्फ नाम की समानता है। जैसे कि, मूर्ति से जुड़े नाम के कारण उसे भगवान माना जाता है। मूर्ति की रचना में इस्तेमाल किये गए घटकों के कारण मूर्ति को भगवान नहीं माना जाता। जब एक मूर्ति के अंदर भगवान को प्राण प्रतिष्ठित किया जाता है तब उस मूर्ति को भगवान माना जाता है। उसी प्रकार, आकाश में स्थित ‘बृहस्पति ग्रह’ को ‘देवगुरु बृहस्पति’ जी से जोडा गया है। अन्यथा आकाश में स्थित ‘बृहस्पति ग्रह’ एक पत्थर का गोला मात्र है।

कौलान्तक पीठ के पीठाधीश्वर ‘महासिद्ध ईशपुत्र’ ने भी बृहस्पति जी के नास्तिक दर्शन के अंतर्गत आने वाले योग के माध्यम से समाधी का अनुभव किया है। अलग अलग कुलों में पारंगत हासिल करने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि, बृहस्पति जी की साधना एक सामर्थ्यवान गुरु से प्राप्त की जाए।

आंतरराष्ट्रीय कौलान्तक सिद्ध विद्यापीठ

‘आंतरराष्ट्रीय कौलान्तक सिद्ध विद्यापीठ’ सिद्ध धर्म पर आधारित धार्मिक विद्यापीठ है। यह विद्यापीठ ‘सिद्ध धर्म’ के सिद्धों का ज्ञान जगत को देता है। यह एक पंजीकृत विद्यापीठ है और सिद्ध धर्म के सिद्धों का ज्ञान मूल स्वरूप में जगत को देने के कानूनी अधिकार स्वयं के पास रखता है। यह विद्यापीठ सिद्ध धर्म का ज्ञान देश-विदेश के लोगों को देती है। आज के समय में संपूर्ण दुनिया एक गाँव की तरह करीब आ गई है। परंतु, सिद्ध धर्म अभी तक दुनिया में पहुँचा नहीं है, क्योंकि ‘गुरुमंडल’ सिद्ध धर्म के ज्ञान का प्रचार हिमालय से बाहर करने की अनुमति नहीं देता । गुरुमंडल ‘महासिद्ध ईशपुत्र’ पर विश्वास करता है तथा सिद्ध धर्म का ज्ञान जगत को देने का कार्य ‘महासिद्ध ईशपुत्र’ को दिया गया है। सिद्धों का संदेश विद्यापीठ के माध्यम से दुनिया को देने का कार्य दिया गया है। ‘आंतरराष्ट्रीय कौलान्तक सिद्ध विद्यापीठ’, एक तरह से सिद्धों का विद्यापीठ है। यहां अलग अलग तरह की विद्याओं को सिखाया जाता है।

सिद्धों का ज्ञान जगत को देने के उद्देश्य से ही ‘आंतरराष्ट्रीय कौलान्तक सिद्ध विद्यापीठ’ को कानूनी तौर पे अलग से पंजीकृत किया गया है। यहां पर ‘महासिद्ध ईशपुत्र’ की विद्वत्ता का प्रयोग सिद्ध धर्म के ज्ञान के प्रसार हेतु किया जाता है। फिलहाल, इस विद्यापीठ के तीन केंद्र भारत देश में है। उनमें से एक हिमाचल प्रदेश के धाराखरी जिले के कोटला नामक गाँव मे है, दूसरा ऋषिकेश, उत्तराखंड में है, तीसरा सतारा, महाराष्ट्र में है। सतारा स्थित केन्द्र कार्यरत है परंतु अभी इमारत का कार्य नहीं हुआ है, अन्य दो केंद्रों का बांधकाम जारी है।

अगर कोई व्यक्ति विद्यापीठ से कोर्स करना चाहता है तो इन केंद्रों में संपर्क कर सकता है।

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