कुरुकुल्ला


‘कुरुकुल्ला’ यह शब्द ‘कुरु’ और ‘कुल्ला’ इन दो शब्दों से बना है। ‘कुरु’ शब्द का अर्थ ‘निर्माण और विनाश करने वाली’ ऐसा है। तथा ‘कुल्ला’ शब्द का अर्थ ‘ज्ञान परंपरा’ ऐसा होता है। ऐसा माना जाता है कि, माँ कुरुकुल्ला समस्त डाकिनियों की भी ईश्वरी है। क्योंकि, डाकिनियों के नियम पालन ना करने के स्वभाव की वजह से सब सत्व, रज, तम के किसी भी कुल ने डाकिनियों को स्वीकार नही किया। तब माँ कुरुकुल्ला ने डाकिनियों का व्यवहार नजरअंदाज करते हुए उनको स्वीकार किया। इसी कारण से माँ कुरुकुल्ला को परम् अथवा महान डाकिनी भी कहा जाता है। माँ कुरुकुल्ला के संबध में लिखे गए ग्रंथ और तांत्रिक क्रियाए सिद्धो के द्वारा हमेशा गुप्त रखी गयी है। इन विषयो की थोड़ीसी झलक हमे बौद्ध धर्म के कुछ क्रियाओं में दिखती है।

माँ कुरुकुल्ला को कबायली देवी भी माना गया है। क्योंकि, उनके ‘विकुल्ला’ नामक तामसिक स्वरूप में प्राणीसदृश्य बाते है।

कुरुकुल्ला उत्पत्ति और कौलातंक पीठ।

Contents

उत्पत्ति

सिद्ध धर्म मानता है कि,  माँ कुरुकुल्ला ने कौलांतक पीठ की स्थापना की और माँ कुरुकुल्ला ही इस पीठ की अधिष्ठात्री शक्ति है। सिद्ध धर्म में माँ कुरुकुल्ला को ही योगमाया अथवा परम् ईश्वरी माना गया है। जब सिर्फ ब्रह्म का अस्तित्व था। तब,  ब्रह्म ने आत्मसंकल्प द्वारा स्वयं को अनेको भागों में विभाजित किया। इसी प्रक्रिया से , एक कुल (ज्ञान परंपरा) की निर्मिती हुई। उसे ही उत्पत्ति कुल कहा गया। जब व्यवस्था को बनाए रखने की जरूरत थी , तब स्थिति कुल का निर्माण हुआ। इसी के साथ संहार कुल की भी निर्मिती हुई। योगमाया ही परम शक्ति है और वही अपने अदृश्य (निराकार) रूप में इन तीनो कुलोंको चलाती है। योगमाया जी के अदृश्य स्वरूप को ही कुलादेवी कहा जाता है। निराकार रूप में कुलादेवी जी का कोई शरीर नही है। तथा इन्ही तीन कुलों को चलाने का कार्य वो अपने तीन स्वरूपो के द्वारा करती है। उनमे से उत्पत्ति कुल को अपने ‘सुकुल्ला’ स्वरूप में, स्थिति कुल को अपने ‘कुरुकुल्ला’ रूप में और संहार कुल को अपने ‘विकुल्ला’ रूप में चलाती है।

काफी समय तक कुलादेवी जी प्रकट स्वरूप में थी। पर उनका कोई निश्चित स्वरूप नही था। जैसे जैसे समय गया, भगवान शिव और माँ पार्वती के एकात्मकता के बाद आगम परंपरा का निर्माण हुआ। बाद में देव-देश में कौलान्तक पीठ की स्थापना हुई, तब उस उद्देश्य पूर्ति के हेतु से, माँ पार्वती जी के योग शरीर से माँ कुरुकुल्ला जी प्रकट हुई। माँ पार्वती ने प्रकृति के सत्व, रज, तम इन गुणों के अनुसार स्वयं को और तीन स्वरूपो में विभाजित किया। माँ का सात्विक रूप सुकुल्ला रूप में परिवर्तित हुआ। राजसिक रूप कुरुकुल्ला रूप में परिवर्तित हुआ। तथा तामसिक रूप विकुल्ला रूप में परावर्तित हुआ। इसी तरह भगवान शिव ने भी इन तीन शक्तियों के भैरवीजी के स्वरूप में तीन रूप धारण किये। माँ सुकुल्ला के भैरव के रूप में भगवान शिव ने मुक्त भैरव का स्वरूप धारण किया। कुरुकुल्ला स्वरूपी माँ के भैरव के रूप में स्वतंत्र भैरव का रूप धारण क़िया। तथा माँ के विकुल्ला भैरव के रूप में स्वच्छंद भैरव का रूप धारण किया।

माँ सुकुल्ला जी कश्मीर से ले कर आधुनिक युग के उजबेकिस्तान के  बीच के गुप्त पर्वतों में स्थिर हुई। उनकेही परंपरा को कालांतर से ‘कश्मीर शैविजम’ कहा गया। माँ कुरुकुल्ला जी उत्तराखंड, कश्मीर, नेपाल तथा उत्तरी तिब्बत के गुप्त पर्वतों में स्थिर हुई। ऐसा माना जाता है कि, आधुनिक युग की ‘कुल्लू’ नामक जगह का नाम ‘कुल्लुता’ इस शब्द से लिया गया है। तथा कुल्लुता यह शब्द कुरुकुल्ला इस शब्द से निर्मित हुआ है। माँ का ‘विकुल्ला’ स्वरूप नेपाल तथा भूटान से लेकर म्यानमार के पर्वतों में स्थिर हुआ। इसी जगह को ‘कामरु देश’ भी कहा गया है तथा ऐसा उल्लेख महासिद्ध मत्स्येन्द्रनाथ

जी द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ नामक ग्रंथ में भी है। सिद्ध परंपरा के अनुसार ‘कामरु देश’ विकुल्ला माँ के स्थान से लेकर पूर्व दक्षिण दिशा में स्थित थाईलैंड, बाली, कंबोडिया इन जगहो तक है।

माँ पार्वती जी ने स्वयं को विभाजित करने के बाद निर्मित माँ के इन तीनो रुपों ने स्वयं को और कुछ हजारों योगिनियों में विभाजित किया। तथा भगवान शिव ने भी स्वयं को अनेको भैरवों में विभाजित किया। इसकारण अनेको परम्पराओं का निर्माण हुआ। तथा विश्व के अनेको भागों से योगिनियां तथा भैरव हिमालय आए। इसतरह, योगिनियों और भैरवों के कुछ प्रकार थे। जिनके नाम नीचे लिखे गए है।

नाग।

सर्प।

अश्व।

वायुमुखी।

वृक्षस्थित।

निर्झरस्थित।

फलस्थित।

कमंडलुस्थित।

दंडस्थित।

पुष्पस्थित।

धातुस्थित।

भूस्थित।

रात्रिचारी।

वनाचारी।

व्योमचारी।

बहुरूपी।

संयुक्त।

अदृश्य।

गुप्तगुण।

ऋषिरूपी।

रत्नस्थित।

सागरस्थित।

निलखंडी।

ऊपर लिखे गए सारे देवी देवताओं ने माँ कुरुकुल्ला से उनके इलाके में रहने के लिये अनुमती मांगी। माँ कुरुकुल्ला ने उनको कलयुग के मध्य तक अन्य देवी देवताओं समेत हिमालय में रहने का वर दिया।

कौलातंक पीठ के शाक्त परंपरा के अनुसार उत्पत्ति।

कौलातंक पीठ की शाक्त परंपरा तथा सिद्ध परंपरा के अनुसार ऐसा माना जाता कि, माँ कुरुकुल्ला का कोई आदि-अंत नही है तथा वही परम ईश्वरी है। उनका कभी जन्म नहीं हुआ तथा वह नित्य है। माँ ने ही सारे देवता और ब्रह्मांड बनाया है तथा माँ की ही शक्ति से ब्रह्मांड आगे बढ़ रहा है।

ऐसा माना जाता है कि, किसी दिन माँ को ब्रह्मांड के उत्पत्ति करने की इच्छा हुई। तब उन्होंने अपने धनुष की प्रत्यंचा खींची और ढीली छोड़ी। इसी के साथ प्रथम ध्वनि ‘ॐ’ की उत्पत्ति हुई। पहले स्वर वर्ण उत्पन्न हुए तथा उसके गुंजन से ‘म’ यह आधी ध्वनि उससे जुड़ी। इस तरह ‘ॐ’ की ध्वनि निर्माण हुई।

ॐ की ध्वनि अविनाशी मानी गयी है क्योंकि, यह स्वर वर्ण के गुंजन से निर्माण हुआ है। ब्रह्मांड में स्थित आवाज नित्य है तथा ध्वनि के गुंजन से ही ॐ की उत्पत्ति हुई है। इस कारण ॐ की ध्वनि नित्य है। परंतु, हम उसे सुन नहीं सकते।

ॐ से ही सकल ब्रह्मांड निर्माण हुआ है। तथा ॐ की उत्पत्ति माँ कुरुकुल्ला से हुई है। इसी कारण, माँ सकल कारणों की कारण है तथा सारे मूल का मूल है।

स्वरूप तथा चित्रण

सिद्ध धर्म के अनुसार, माँ कुरुकुल्ला जी को एक जवान स्त्री के रूप में दर्शित किया गया हैं। वह रक्तवर्णा है तथा सम्पूर्ण शरीर पर रत्नालंकार परिधान करती है। उनको चेहरे पर कोप और सुंदरता का भाव धारण किये हुए एक सुंदर जवान स्त्री के रूप में भी दर्शाया गया है। माँ कुरुकुल्ला के चार हाथ है। उनके एक हाथ में कमल की पतली डंडी से बना बाण है। इस बाण पर पुष्प भी है। उनके उसी भाग के दूसरे हाथ मे त्रिशूल है। इस त्रिशूल पर कंकण नाग लिपटा हुआ है। उनके एक बाए हाथ मे कमल के पतली डंडी से बना धनुष है। तथा दूसरे बाए हाथ में कमल का पुष्प है। माँ कुरुकुल्ला को दैत्य राहु तथा उसकी पत्नी के ऊपर खड़ी हुई भी दिखाया गया है।

सिद्ध धर्म के अनुसार , माँ कुरुकुल्ला को रक्तवर्णा जवान स्त्री के रूप में दिखाया गया है। वह रजस और जुनून का प्रतीक है। रजस को हमेशा रक्तवर्ण से दर्शाया जाता है। हमारे शरीर के अंदर विद्यमान खून ही प्राण शक्ति को सारे अवयवों तक पहुंचाता है। इस कारण, माँ कुरुकुल्ला जी का शरीर रजस से पूर्ण है। माँ कुरुकुल्ला के चेहरे पर कोप और सुंदरता दिखाई गई है। उससे वह मध्य मार्ग की प्रतीक प्रतीत होती है।

सिद्ध धर्मानुसार , कमल के डंडी से बना हुआ बाण और धनुष यह माँ कुरुकुल्ला के शस्त्र है। इसका यह मतलब है कि, माँ की युद्धशैली मानसिक स्तर की है। माँ अपने शत्रुओं पर बल का प्रयोग नहीं करती अपितु,  अपने शत्रुओं को इस तरह से सम्मोहित करती है कि, शत्रु स्वयं ही बड़े खुशी से स्वयं का विनाश करता है। उदाहरणार्थ, भस्मासुर को माँ के ही मोहिनी रूप ने मोहित किया था। भस्मासुर बाहरी जगत में अजेय था परंतु, मोहिनी द्वारा भस्मासुर का आंतरिक दमन करने के कारण वह बिना किसी प्रतिकार के विनाश की और बढा। इसी कारण, सिद्ध धर्म के अनुसार माँ कुरुकुल्ला कमल के डंडी से बने शस्त्र धारण करती है। माँ किसी कठोर धातु से बने शस्त्र धारण नहीं करती। हमें इस बात पर गौर करना चाहिये कि, कमल की डंडी टूंट सकती है पर उसके पीछे की संकल्पना टूंट नहीं सकती। कमल की डंडी सम्मोहन की संकल्पना को दर्शाती है। माँ का सम्मोहन अभेद्य है। और उस सम्मोहन को केवल माँ ही भेद सकती है। माँ के एक हाथ में त्रिशूल भी है। इसका मतलब माँ योद्धाओं की भी देवी है। इस त्रिशूल पर कंकण नाग भी है। इससे योद्धाओं के लिए भोग और मोक्ष का मार्ग सूचित किया गया है। सिद्ध धर्म ऐसा भी मानता है कि, कंकण का मतलब कंगन ऐसा है। माँ के हाथ और पैरों में चूड़ियां कंकण दिखाए गए है। खास कर , रजस और तमस पंथ के देवता नागों से बने अलंकार पहनते है। माँ कुरुकुल्ला के कंकण नाग के अनेक अर्थ है।

प्रथमतः इसका यह मतलब है कि, नाग कंकण पहनने वाले योद्धा देवताओं का अपने नाडी तंत्र पर पूरा नियंत्रण है। इसका दूसरा मतलब ‘नकारात्मकता से सुरक्षा’ ऐसा भी है। माँ के दूसरे हाथ में कमल है। इससे समृद्धि प्रतीत होती है। माँ अपने उपासकों को समृद्धि प्रदान करती है।

सिद्ध धर्म ऐसा मानता है कि, माँ के पास किसी को भी सम्मोहित कर माया में खींचने का सामर्थ्य है। कौल सिद्ध मानते है कि, माँ कुरुकुल्ला की माया अभेद्य है। माया से बाहर निकलने के लिये हमें माँ कुरुकुल्ला के द्वारा स्वतंत्र भैरव जी को समझना है। माँ कुरुकुल्ला ही स्वतंत्र भैरव जी का आवरण है। पहले हमें माँ कुरुकुल्ला को समझना होगा तभी हम माया को भेद सकेंगे। माया का मूल कारण आसक्ति नहीं अपितु, माँ कुरुकुल्ला है। किसी भी संकल्पना को समझने हेतु उसके प्रति लगाव होना आवश्यक है। और यह लगाव ही माँ कुरुकुल्ला है।

स्वरूप।

माँ के तीन स्वरूपो के अनेक स्वरूप हैं। उनमें से सोलह स्वरूप प्रमुख है। इन्ही सोलह स्वरूपो को एकत्रित ‘षोडशदल वासिनी कुरुकुल्ला’ कहा जाता है। इन्हीं सोलह स्वरूपों के वरदान के इच्छा पूर्ति होती है। इन सोलह में से प्रत्येक स्वरूप का अलग रूप, कर्मकांड और ग्रंथ है। इन्हीं सोलह स्वरूपों के नाम और गुण संक्षेप में नीचे लिखे गए है।

  1. सिद्धचित्ता कुरुकुल्ला
  2. गंधर्व सेविता कुरुकुल्ला :  गंधर्व जिनकी सेवा करते है।
  3. महाबुद्धिकुरुकुल्ला : जिनकी बुद्धि सबसे श्रेष्ठ है।
  4. अपराजिताकुरुकुल्ला : अजेय माँ कुरुकुल्ला।
  5. आकर्षणी कुरुकुल्ला : आकर्षित करने वाली माँ कुरुकुल्ला।
  6. वज्राधारिणी कुरुकुल्ला : वज्र धारण करने वाली कुरुकुल्ला।
  7. वनवासिनी कुरुकुल्ला : वन में रहने वाली माँ कुरुकुल्ला।
  8. महापोषिणी कुरुकुल्ला : महान पोषण करने वाली कुरुकुल्ला।
  9. वंशवर्धिनी कुरुकुल्ला : वंश की वृद्धि करने वाली माँ कुरुकुल्ला।
  10. संहारिणी कुरुकुल्ला : संहार करने वाली माँ कुरुकुल्ला।
  11. मृत्युमथनी कुरुकुल्ला : मृत्यु को नष्ट करने वाली कुरुकुल्ला।
  12. कालातीत कुरुकुल्ला : समय मर्यादा के परे की कुरुकुल्ला।
  13. ऐश्वर्यप्रदा कुरुकुल्ला : समृद्धि देने वाली कुरुकुल्ला।
  14. दुशस्वप्ननाशिनी कुरुकुल्ला : बुरे स्वप्नों का अंत करने वाली कुरुकुल्ला।
  15. कामविलसिनी कुरुकुल्ला : आकर्षक कामनाओं की ओर प्रवृत्त करने वाली कुरुकुल्ला।
  16. मोक्षमार्गिनी कुरुकुल्ला : मोक्ष प्राप्ती के मार्ग स्वरूप माँ कुरुकुल्ला।

सुकुल्ला माँ के भी आठ अलग अलग रूप है। उनको एकत्रित ‘अष्टदलवासिनी सुकुल्ला’ कहा गया है। इन्हीं आठ स्वरूपों के वरदान से इच्छा पूर्ति होती है। इन आठ में से प्रत्येक स्वरूप का अलग रूप, कर्मकांड और ग्रंथ है। इन्हीं आठ स्वरूपों के नाम और गुण संक्षेप में नीचे लिखे गए है।

  1. सत्वचित्ता सुकुल्ला : सत्य चेतना रूपी सुकुल्ला।
  2. मंदनादा सुकुल्ला : शांत आवाज रूपी सुकुल्ला।
  3. सत्यबुद्धि सुकुल्ला : सत्यबुद्धि स्वरूप सुकुल्ला।
  4. प्रेमस्रजा सुकुल्ला : प्रेम को उत्पन्न करने वाली सुकुल्ला।
  5. ब्रम्हाण्डधरी सुकुल्ला : ब्रम्हांड को पकड़े रखने वाली सुकुल्ला।
  6. नियमकौतुका सुकुल्ला : नियम प्रिया सुकुल्ला।
  7. गुप्ततरा सुकुल्ला : बहुत गुप्त सुकुल्ला।
  8. महाशून्य सुकुल्ला : महाशून्य रूपी सुकुल्ला।

देवी विकुल्ला जी के 10 स्वरूप है। इन्ही दस स्वरूपो को एकत्रित ‘दशारदलवासिनी विकुल्ला’ कहते है। इन्ही दस स्वरूपों के वरदान से इच्छा पूर्ति होती है। इन दस में से प्रत्येक स्वरूप का अलग रूप, कर्मकांड और ग्रंथ है। इन्ही दस स्वरूपों के नाम और गुण संक्षेप में नीचे लिखे गए है।

  1. चित्तविरोधिनी विकुल्ला : मन में अवरोध का निर्माण करने वाली कुरुकुल्ला।
  2. उन्मादकारी विकुल्ला : पागलपन अथवा नशा निर्माण करने वाली विकुल्ला।
  3. क्रुरकृत्या विकुल्ला : क्रूर संहार जादू और सम्मोहन स्वरूपी कुरुकुल्ला।
  4. महारात्रिस्त्रजा विकुल्ला : महारात्रि को पैदा करने वाली विकुल्ला।
  5. अमोघदंडधारिणी विकुल्ला : कठोर दंड देने वाली विकुल्ला।
  6. प्रलयनादिनी विकुल्ला :  प्रलय को महत्व देने वाली विकुल्ला।
  7. भ्रमवासिनी विकुल्ला : असमंजस और भ्रम निर्माण करने वाली विकुल्ला।
  8. मनोभावक्रीडांगी विकुल्ला : जिसका शरीर भावनात्मक खेल से बना हुआ है ऐसी विकुल्ला।
  9. रहस्यातमेश्वरी विकुल्ला : रहस्यमयी आत्माओं की देवी रूपिणी विकुल्ला।
  10. स्थूलचित्ता विकुल्ला : स्थूल मन रूपी विकुल्ला।

माँ कुरुकुल्ला और उनका प्रकृति से संबंध।

सिद्ध धर्म के अनुसार, माँ कुरुकुल्ला जी कुल्लुता मंडल की स्वामिनी है। उनका कुल्लुता मंडल के वनस्पति और जीवों से खास संबंध है। एक कथा के अनुसार, समस्त वनस्पति और जीवों ने कलियुग से रक्षा प्राप्ति हेतु माँ कुरुकुल्ला से प्रार्थना की। जुजुराना और मोनल पक्षियों ने पंख और फूल अर्पण किये। उन्होंने फूल और कुछ जड़ी बूटियां अर्पित की।

माँ कुरुकुल्ला उनके सामने प्रकट हुई और उन्होंने वो फूल, पंख और जड़ी बूटी को स्वीकार किया तथा अपने सिर पर अलंकार के रूप में धारण किया। इस कारण, सिद्ध धर्म में, माँ कुरुकुल्ला जी के मूर्ति का सर उन्हीं पक्षियों के पंख और फूल से सजाया जाता है। तथा पेड़ों की डंडियों से सजाया जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि, माँ कुरुकुल्ला जी कौलांतक पीठ के फूल, पर्वत और पेड़ों में निवास करती है। निसर्ग की शांति भंग करना बहुत बड़ा पाप माना गया है।

ऐसा माना जाता है कि,  माँ कुरुकुल्ला जी प्रकृति में छोटे पक्षियों के रूप में विचरण करती है। छोटे पक्षियों की सक्रियता और आकार कारण उनको ढूंढना कठिन होता है। छोटे छोटे पक्षी बिना पकड़े जाने के डर के स्वतंत्रता से विचरण करते है। माँ कुरुकुल्ला के गुण भी कुछ ऐसे ही हैं। किसी भी क्रिया का कारण होते हुए भी वो अपने आप को गुप्त रखती है। छोटे पक्षियों की तरह माँ कुरुकुल्ला को भी ढूंढना कठिन है। प्रकृति के अलावा, माँ कुरुकुल्ला नृत्य, गायन इत्यादि कलाओं का भी ज्ञान देती है। माँ कुरुकुल्ला शिल्पकला का ज्ञान और बुद्धिमत्ता भी देती है। माँ कुरुकुल्ला जी जादू और चमत्कारों की भी देवी है। माँ तो अपने उपासक को भी अपने कौशल से आश्चर्य में डालती है।

अनुस्वार योग और माँ कुरुकुल्ला।

सिद्ध धर्म के योग शाखाओं में से एक शाखा है ‘शाक्त योग’। इसमें माँ कुरुकुल्ला ही ‘अनुस्वार योग’ की निर्मात्री गुरु हैं। कुरुकुल्ला स्वरूप में माँ शक्ति ही भगवान शिव जी को अनुस्वार योग का ज्ञान देती है। इस ज्ञान को सुनकर सिद्धों ने इसे एकत्रित किया और इसी को ‘अनुस्वार योग’ कहा गया है। नीचे संक्षेप में अनुस्वार योग के बारे में लिखा गया है।

जब एक योगी ध्यान करने के लिये आँख बंद करते है, तब उन बंद आंखों को दिखने वाला अंधेरा ही माँ विकुल्ला है। उस अंधेरे में, प्रकाश, स्वाद, रंग, स्पर्श, गंध और आवाज का अनुभव ही कुरुकुल्ला है। तथा पूर्ण चेतना की स्थिति ही सुकुल्ला है। तंत्र योग में, कुरुकुल्ला ध्यान प्रणाली नामक एक पद्धति है। इसमें निर्मिती, पालन और संहार के अनुरूप प्रणालियाँ है। जब योगी ध्यान करते वक्त मानसिक स्तर पर इस तरह की कल्पना करते है कि, उनका शरीर सूक्ष्म बिंदुओं से बन रहा है,  तब इसे ‘सृष्टिध्यान’ कहा गया है। जब अपने शरीर को जीवंत, दिव्य, पूरी तरह स्वस्थ तथा अमृत से युक्त इस तरह से ध्यान किया जाता है तब उसे ‘स्थितिध्यान’ कहते है। जिस ध्यान में शरीर को सूक्ष्म कणों में बटकर शून्यता में विलीन होता हुआ कल्पित किया जाता है उसे ‘लयध्यान’ कहा जाता है।

माँ कुरुकुल्ला का योग भगवान शिव जी के द्वारा आगम में बताए गए योग से पूरी तरह अलग है। माँ ने जिव्हा से स्वाद लेते वक्त,  कानों से सुनते वक्त, त्वचा से स्पर्श अनुभव करते वक्त,  आँखों से देखते वक्त और नाक से गंध लेते वक्त ध्यान करने के लिये कहा है।

इस तरह, माँ कुरुकुल्ला का अनुस्वार योग प्रकृति के साथ बहकर किया जाता है। प्रकृति के प्रवाह के विरुद्ध जाकर नहीं किया जाता।

कुरुकुल्ला नित्य कौलाचार आवरण पूजन साधना।

जिस तरह संतरे के बीज उसके रस और अन्य घटकों में छुपे होते है। उसी तरह इष्ट भी माया से बने आवरणों के बीच छुपे होते है। इन आवरणों को उठाने के बाद ही इष्ट का स्वरूप जानने में आता है। कौलाचार की तांत्रिक विधियों में इस साधना को आवरण साधना कहा गया है। माँ कुरुकुल्ला के आवरण साधना को ‘सप्त सिंधु पूजन’ ऐसा कहा गया है। यह साधना साधकों द्वारा नियमित की जाती है। एक सामान्य क्रिया होते हुए भी यह एक महत्वपूर्ण विधी है।

सप्त सिंधु साधना में , एक के अंदर एक इस तरह से सबका एक ही मध्य बिन्दु होने वाले सात वृत्त मिट्टी से बनाए जाते है तथा मंत्रों से तर्पण किया जाता है।

इस पूजन क्रम को करने ले लिये, एक साधक को, घर अथवा किसी अन्य जगह से मिट्टी जमा करनी होती है। इस मिट्टी से कीड़े और पत्थर निकालने के बाद उस में पानी डाला जाता है और उसे सख्त बनाया जाता है। फिर उसके बाद, इस मिट्टी से किसी अच्छे जगह पर सात समानांतर वृत्त बनाये जाते है। इन सभी वृत्तों का मध्य बिंदु एक ही होता है। पश्चात, लाल रंग रे रंगे अक्षतों का एक ढेर सबसे अंदर स्थित वृत्त में रखते है। उसके बाद , तर्पण किया जाता है। तर्पण के लिये प्रयोग किया जाने वाला जल लाल रंग का होना चाहिए। इसी जल में कुछ पुष्प की पंखुडिया तथा कुछ अक्षत भी मिले हुए होने आवश्यक है। तर्पण करते वक्त जल को मंत्रों उच्चारण के साथ सबसे अंदरूनी वृत्त में अर्पण किया जाता है। धीरे धीरे अंदरूनी वृत्त से तर्पण का पाणी बाहर के वृत्तों में आता है।

माँ कुरुकुल्ला का बीज मंत्र।

माँ कुरुकुल्ला का बीज मंत्र ‘कं’ यह है। यह बीज संपूर्ण ब्रह्मांड तथा हमारे में स्थित समस्त शक्तियां और कंपन का प्रतिनिधित्व करता है। जिस तरह धातु के कंपन गिरने पर काफी देर तक उसकी आवाज गूंजती रहती है उसी प्रकार माँ की शक्ति और कंपन प्रत्येक जीव में और हर जगह है। यही बात ‘कं’ बीज मंत्र दर्शाता है। सिद्ध योगी इसी बीज मंत्र को अपने हृदय में धारण करते है।

कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्रनाथ जी के एक प्रसिद्ध चित्र में भी उनके हृदय कमल पर ‘कं’ बीज लिखा हुआ है। यह सिद्ध योगियों के द्वारा कं बीज को माँ के दयालु प्रेम और शक्ति पर ध्यान करने हेतु से हृदय में धारण करने की बात दर्शाता है।

माँ कुरुकुल्ला और कुल्लुता।

सिद्ध धर्म के गुरु मंडल तथा सिद्धेश्वर महादेव जी ने , माँ के मंत्र की पवित्रता बनाए रखने हेतु से और मंत्र का गलत उपयोग रोकने के लिए, मंत्र को कीलित किया है। प्रथम बात यह कि, सिद्ध धर्म के मंत्र हमेशा गुप्त रखे जाते है। अगर फिर भी कोई इन मंत्रों को प्राप्त करता है तो भी मंत्र कीलित होने के कारण उसका प्रयोग नहीं कर पायेगा। सिद्ध धर्म के किसी भी मंत्र को कुलुक्का के प्रयोग औऱ माँ कुरुकुल्ला के आशीर्वाद से उत्कीलित किया जाता है। सिद्ध धर्म के अनुसार, टांकरी को आसान बनाने के लिए, माँ कुरुकुल्ला ने अपने कमल के डंडियों से बने धनुष की डोर खींची तथा ढीली छोड़ी तब अनेको ध्वनियां निर्माण हुई। यह ध्वनियां देव देश मे गूंजती रही। यह बिल्कुल ट्यूनिंग फोर्क और ट्यूब की तरह था। जिस तरह ट्यूनिंग फोर्क ध्वनि उत्पन्न करता है उबस प्रकार माँ के धनुष की प्रत्यंचा ने ध्वनि उत्पन्न की। तथा जिस तरह ट्यूनिंग फोर्क से निकली ध्वनि ट्यूब में गूंजती रहती है। उसी तरह धनुष की प्रत्यंचा से निकली ध्वनि देव देश में गूंजती रही। इस तरह से उत्पन्न हुई ध्वनि ही संस्कृत भाषा के स्वर वर्ण और व्यंजन वर्ण है। इन ध्वनियों के गूंजने से उसमे ‘मम्म्म’ की ध्वनि भी जुड़ी उसी को अनुनासिक ध्वनि कहते है।

इस तरह स्वर वर्ण और व्यंजन वर्ण के गुंजन से बने ध्वनि को ही ‘कुल्लुका’ कहा गया है। माँ कुरुकुल्ला से कुल्लुका की निर्मिती हुई तथा कुल्लुका को ही बीज मंत्र कहा जाता है। तंत्र में, यंत्र और मंत्र का उत्कीलन करने के लिए भी ध्वनियों की स्थापना और कल्पना ब्रह्मरंध्र में की जाती है। इसके लिए भी कुल्लुका का प्रयोग होता है। इसको ही तंत्राचार और आगम निगम में ‘कुल्लुका शिरोस्थापना’ ऐसा कहा गया है।

सिद्ध धर्म मे मंत्रो के उत्कीलन हेतु कुल्लुका का उपयोग होता है। तथा यह कुल्लुका गुरु द्वारा प्राप्त होती है।

माँ कुरुकुल्ला का दर्शन।

सिद्ध धर्म कहता है कि, माँ कुरुकुल्ला का दर्शन बहुत आसान है। देवी जी हमें एकात्मता प्राप्त करने के लिये प्रेरित करती है। देवी द्वारा दिये गए अनुस्वार योग में समानता स्थापना पर जोर दिया गया है। देवी कहती है कि, ब्रह्मांड में मनुष्य , प्राणी , पक्षी इत्यादि सब एक दूसरे के लिए बने है। त्रिगुणों के खेल के कारण ही प्रकृति में संघर्ष उत्पन्न होता है।

संतुलन, लयबद्धता, भलाई, शुद्धता, निर्मिती कौशल्य, सकारात्मकता, शांती यह सब सत्व गुण के कारण है। जुनून, सक्रियता, आत्मकेंद्रितता, अहंकार यह रजस गुण के कारण है। अच्छे और बुरा यह दोनों भी ना होना भी रजस है। अशुद्धि, संहार, निराश, नकारात्मकता, असक्रियता,  हिंसा यह सब तमस गुण के कारण है।

देवी कहती है कि, जिसने निर्माण , पालन और संहार के इन तीन गुणों को समझ लिया वो व्यक्ति कभी भी दुखी नहीं रहता। ब्रह्मांड में घटित होने वाले अनेक घटनाओं से इन तीन गुणों का संबंध समझने पर मनुष्य सदा सुख में रहता है।

अनुस्वार योग को हर चीज से जोड़ने की तथा स्वयं के सुरक्षा हेतु प्रयोग करने की प्रेरणा देवी देती है। किसी भी चीज का अथवा मनुष्य का पूर्ण विनाश ना करने की सीख माँ कुरुकुल्ला देती है। किसी भी चीज के आगे बढने की क्षमता , जो कि सकल घटनाओं का कारण है, उसे कभी नष्ट नहीं होना चाहिये। संपूर्ण विश्व और उसके विविध घटक माँ कुरुकुल्ला के अलंकार है। कोई भी घटक नष्ट नहीं करना चाहिए अपितु, उनमें इस तरह से संतुलन रखना चाहिए कि, सत्व सबसे बलवान, रजस बीच में और तमस सबसे कमजोर रहे। दूसरे शब्दों में कहे तो, देवी सारे भले और बुरे गुणों का महत्व बताती है। तथा ब्रह्मांड के अस्तित्व का संघर्ष भी बताती है। देवी तीनों गुणों का ब्रह्मांड के कार्य मे क्या महत्व है यह बताती है। तथा माँ यह बताती है कि, हमे तीनो गुणों का सही प्रयोग करना आना चाहिये परंतु, गुणों में पूरी तरह आसक्त नहीं होना चाहिये। वह कहती है कि, सात्विक गुण बलवान तथा तामसिक गुण सबसे कमजोर होना चाहिये।

नास्तिकता और कुरुकुल्ला।

सिद्ध धर्म के नास्तिक पंथ में ‘अवलंब विन्द’ नामक ऋषि हुए। उनके अनुसार, अनुभव का सामर्थ्य ही कुरुकुल्ला है। सुख और आनंद का अनुभव सुकुल्ला है तथा दुख, क्लेश का अनुभव ही विकुल्ला है। तथा उन दोनों प्रकार के अनुभवों के बीच का अनुभव लेते जीवन जीना ही विकुल्ला है। बाकी सभी प्रतिपादन तंत्र के प्रतीकात्मक भाषा मे लिखे गए है। समस्त इन्द्रिय और अनुभवों को व्यवस्थित रखना ही कुरुकुल्ला है। इसका प्रयोग चीजों को ठीक से निरीक्षण कर अनुभव करते हुए सत्य का शोध करने के लिये करना चाहिए। अनुभव को भ्रम से अलग करना बहुत ही जटिल कार्य होता है। इन्द्रिय जनित ज्ञान कभी कभी सत्य लग सकता है। इसी कारण सत्य काफी रहस्यात्मक लगता है। इसी कारण कुरुकुल्ला माँ एक रहस्यमयी देवी है।

माँ कुरुकुल्ला जी का कंकण नाग और कौलांतक नाथ जी का सिंहासन।

कंकण नाग का मतलब।

बहुत पुराने समय में, सदाशिव ईश्वर महादेव जी कैलाश पर सकल विद्याओं का ज्ञान माँ पार्वती को दे रहे थे। तब महासिद्ध मत्स्येंद्रनाथ नामक अग्रणी योगी जी उनका संवाद एक मछली के पेट में स्थित होकर सुन रहे थे। इसके कारण उनकी सिद्धिया जागृत होने लगी तथा उनको दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई।

इसी दौरान जब महादेव माँ पार्वती को ज्ञान दे रहे थे तब उन्होंने माँ पार्वती को समझाया कि माँ पार्वती ने स्वयं कोपार्वतीमाना हुआ है। तथा माँ पार्वती को स्वयं की खोज कर अपने योगमाया स्वरूप को जानने के लिये प्रेरित किया। 

उसके बाद माँ पार्वती ने योगमाया स्वरूप धारण किया तथा स्वयं को अनेक स्वरूपों में प्रकट किया। जब माँ पार्वती ने कुरुकुल्ला स्वरूप धारण किया तब , महासिद्ध मत्स्येंद्रनाथ जी के मन में उनके इस स्वरूप के प्रति भक्ति उत्पन्न हुई। माँ कुरुकुल्ला को मत्स्येंद्रनाथ जी की भक्ति तुरंत महसूस हुई फिर माँ ने उनको अपना कंकण नाग वरदान रूप में दिया। 

माँ कुरुकुल्ला रूपी माँ पार्वती ने मत्स्येंद्रनाथ जी से कहा की वह उनकी भक्ति से प्रसन्न हुई। तथा माँ ने उनको सारे आगम और निगमो के ज्ञाता बनने का आशीर्वाद दिया। माँ ने कहा कि, मत्स्येंद्रनाथ जी ज्ञान के प्रचार हेतु जगत में विचरण करेंगे तथा माँ का कंकण नाग ज्ञान की रक्षा करेगा। माँ ने यह भी कहा कि, माँ के प्रति समर्पित एक कुल का सूचक नाग का आसन होगा।

जब मत्स्येंद्रनाथ जी जगत में विचरण कर रहे थे तब उन्हों ने देवताओं के हिमालयस्थित गुप्त प्रदेश में प्रवेश किया। वहाँ पर उन्होंने उत्तर दिशा में स्थितकुलांत पीठनामक योगिनी सिद्धों के पीठ में प्रवेश किया। जब उन्होंने वहाँ माँ कुरुकुल्ला की मूर्ति देखी तब, उन्होंने कंकणनाग का ध्यान किया और कंकणनाग कोवहाँ स्थापित किया।फिर वो माँ कुरुकुल्ला के दिये हुए कंकणनाग के आसन पर विराजमान हुए।

दिव्य गंधर्वो ने राजसी स्वरूप धारण किया तथा मत्स्येंद्रनाथ जी की स्तुति की। गंधर्वो ने नृत्य और गायन के माध्यम से अपनी खुशी प्रदर्शित की। 

मत्स्येंद्रनाथ जी उत्तरी दिशा में रहे और उन्होंने शिव और शक्ति के ज्ञान का प्रसार किया।योग और तंत्र का ज्ञान देते हुए उन्होंने महायोगी निधिनाथ जी को ज्ञान दिया।उन्होंने महायोगी निधिनाथ जी कोकंकणनाग का आसन दिया तथा परंपरा को आगे बढाने के का निर्देश दिया।

तबसे, कौल योगिनी  के पीठ कुलांत पीठ में सारे पीठाधीश्वरों को कंकण नाग का आसन प्राप्त हुआ है। कंकण नाग यह आठ मुखों वाला साँप है। उनके सात मुख आगे की ओर है तथा दुर्मुख नामक एक मुख पीछे की और है। उनके मुखपर माँ योगमाया ने दिया हुआ श्वेत मणी है। 

यह नाग प्रसन्न मुद्रा में है तथा फूत्कार नही भर रहा।इस नाग की जिव्हा सौम्य है।

सिद्ध धर्म के अनुसार, कौलान्तक पीठाधीश्वर स्वाभाविकतः माँ के प्रतिनिधि होते है। उनके हाथ माँ के हाथ है। उनके पैर माँ के पैर है। उनके शब्द माँ के शब्द है। माँ कुरुकुल्ला स्वयं इस जगत में प्रकट नहीं होती है अपितु, कौलांतक पीठाधीश्वर जी को अपने संदेश वाहक के रूप चुनती है। आध्यात्मिक रूप से देखा जाए तो,  पीठाधीश्वर मुक्त भैरव है तथा उनके शब्द ही माँ कुरुकुल्ला के शब्द है।

।।अथ कंकण नाग स्तुति।।

स्मितप्रसन्नरूपंकंकणंस्वर्णवर्णम।

श्वेतमणिमुकुटंश्रीकुरुकुल्लानागभूषणम।।

विपरीतदुर्मुखंक्रोधउन्मादादिहारकम।

ध्यायेदअष्टमुखंश्रीकंकण-नागराजम।।

।।कंकण नाग मंत्र।।

ॐ ह्रैं हुं नमो कंकण कुरूकुला भूषणं।।

कौलान्तक नाथ का सिंहासन।

कौलान्तक नाथ जी का रजस सिंहासन कंकण नाग का बना हुआ है। कंकण नाग को माँ विकुल्ला की चूड़ियों के रूप में दर्शाया गया है। परंतु, माँ कुरुकुल्ला के त्रिशूल से लपेटा हुआ दिखाया गया है। कंकण नाग के चार बार लपेटने से कौलान्तक नाथ जी का राजसिक सिंहासन बना हुआ है। इस नाग के आठ मुख है। उन में से सात मुख आगे की ओर हैं तथा एक पीछे की ओर है। आगे के मुखों में से सबसे बीचके मुख्य पर सोमकांत मणी नाम का मणी है। यह मणी राजसिकता के चर्मोत्कर्ष को दर्शाता है। कंकण नाग के पीछे सूर्य दर्शाया गया है जो राजसिकता तथा कौलान्तक नाथ जी के वाणी में सूर्य की तरह तेज होने का सूचक है।

इस दिव्य घटना को देखकर समस्त देवताओं ने माँ कुरुकुल्ला से उन्हें भी सहभागी होने देने की प्रार्थना की। तथा 33 करोड़ देवी देवताओं ने इस सिंहासन को उठाया हुआ है ऐसा सिद्ध धर्म मानता है। कौलान्तक नाथ जी 33 करोड़ देवी देवताओंके भौतिक प्रतिनिधि है ऐसा सिद्ध धर्म मे माना गया है।

राजसिक सिद्ध सिंहासन पर बैठे हुए व्यक्ति 33 करोड़ देवी देवताओं के प्रतिनिधि है ऐसा माना गया है। इन 33 करोड़ में दानव, किन्नर, किम पुरूष,  भूत, प्रेत, यक्ष, दैत्य, किरात, गंधर्व,  ,नाग , वानर इनका भी समावेश है।

कुरुकुल्ला और कुमारी।

प्रत्येक गुण से युक्त माँ का एक एक स्वरूप है। सुकुल्ला इस सात्विक रूप में माँ कुरुकुल्ला हिमालय में ‘तपस्विनी’, रूप में विराजमान है। जो साधक रजस गुण को त्यागते है तथा गौरव और अहंकार से ऊपर उठे हुए है, तथा सात्विक साधना कर रहे है। ऐसे साधकों के लिये माँ मार्गदर्शक बनी हुई है। देवी ने कहा कि,  अगर वो सात्विक रूप में तपस्या करती हुई हिमालय में स्थित है। तो वो राजसिक गुण के रूप में आम जगत में भी विद्यमान है। कुरुकुल्ला देवी का रजस रूप ही योगियों का ज्ञान है। सहानुभूति, दया इत्यादि हृदय के गुणों में भी माँ विद्यमान है। तीसरी बात यह भी है कि, देवी मनुष्य रूप में कुमारी में स्थित होगी।

देवी ने कहा कि, सारी स्त्रियां मेरा ही स्वरूप है फिर भी मुझे कुमारी में जागृत किया जाना चाहिए। 14 साल से कम उम्र की स्त्री ही कुमारी है। 14 साल से ज्यादा उम्र की स्त्री कुमारी नहीं है। इस बात का स्त्री के मासिक धर्म के उम्र से कोई संबंध नहीं है।

नेपाल की कुमारी परंपरा में, प्रथम बार मासिक धर्म होने तक स्त्री को कुमारी माना गया है। परंतु, सिद्ध धर्म में ऐसा नहीं है। सिद्ध धर्म मे, 14 साल से कम उम्र की स्त्री को ही कुमारी माना गया है।

देवी ने मार्गदर्शन किया कि, कौलान्तक पीठ में दिये हुए कुमारी पूजन के विधी से माँ की उपासना की जा सकती है। सिद्ध धर्म के कौलांतक पीठ में कुमारी पूजा के दो तरीके है। ‘रजस पंथी कुमारी पूजन’ और ‘वाम मार्गी कुमारी पूजन’ यह वो दो तरीके है। उनमें से पहला रजस गुण का और दूसरा तमस गुण का है।

वाम मार्ग कुमारी पूजन में जिस स्त्री का प्रयोग वाहन के रूप में किया जाता है उसकी उम्र प्रथम मासिक धर्म की उम्र से कम होनी आवश्यक है। वाम मार्ग पूजन में कुमारी का मासिक धर्म एक दोष माना गया है। इससे हमें यह समझता है कि, नेपाल में जो कुमारी पूजन है, वह राजसिक नहीं है अपितु, तांत्रिक है। इस बात पर भी गौर करना होगा कि, अगर स्त्री संपूर्ण जीवन मे कभीभी रजस्वला नहीं होती तो उसे सम्पूर्ण जीवनभर कुमारी माना गया है। परंतु, वैद्यकीय शास्त्र इसे बीमारी मानता है।

कुमारी अन्नमयी और मनोमयी।

सिद्ध धर्म मे , कुमारी पूजन से संबंधित एक कथा भी है। एक बार भगवान शिव ने देवी से कहा कि, उनके मतानुसार , एक कुमारी ही शक्ति का सबसे प्रबल स्वरूप होती है। देवी ने कहा कि उनके अलावा दूसरी कोई कुमारी नहीं है। ऐसा कहते हुए देवी ने एक कुमारी का रूप धारण कर लिया। देवी के उस रूप से आश्चर्य में पड़कर भगवान शिव ने देवी से अपनी माया ना दिखाने के लिए कहा। भगवान शिव ने कहा कि वो जानते है कि, देवी कोई कुमारी नहीं है। देवी ने भगवान शिव को उनकी बात का प्रमाण देने के लिये कहा। तब भगवान शिव ने देवी के कौशल की स्तुति करते हुए कहा कि, सिर्फ भगवान शिव ही नहीं अपितु सारे योगी देवी के कुमारी स्वरूप की स्तुति करेंगे।

तो, कर्मकांडी तथा तांत्रिक माँ राज राजेश्वरी की उपासना कुमारी रूप में करते है। माँ का कुमारी स्वरूप सुंदर तथा अलंकारों से युक्त है। देवी का कुमारी स्वरूप अनेको सिद्धियो से आभूषित है। तांत्रिक देवी के कुमारी स्वरूप की उपासना देवी को प्रसन्न करने हेतु करते है।

महा मत्स्येंद्रनाथ जी ने नेपाल के इलाके में स्थित उनके शिष्यों को माँ के कुमारी स्वरूप के बारे में बताया था। कुमारी स्वरूप में देवी की उपासना कुमारी चक्रंमंडल के माध्यम से की जाती है।उसके अन्य यंत्र मंडलों की तरह भूपुर नहीं होता है। मत्स्येंद्रनाथ जी ने एक कुमारी में देवी को जागृत किया था तथा कुछ शिष्य और शक्तिशाली लोगों को कुमारी की सुरक्षा करने के लिये कहा था।

भौतिक शरीर धारी कुमारी को हीअन्नमयीकुमारी कहा जाता है। मत्स्येंद्रनाथ जी ने नेपाल में इस परंपरा की स्थापना की। पहली कुमारी की उम्र 13 साल और कुछ महीने हुई, तब उसके शरीर से माँ कुरुकुल्ला प्रकट हुई। कुछ लोग कुमारी की सुरक्षा कर रहे थे। माँ ने उन लोगो को अपनी प्रवास करनी की योजना बताई। माँ ने कहा कि वो कुछ और आगे घूमना चाहती है। सुरक्षक लोगोने माँ को इस बारे में मत्स्येंद्रनाथ जी से पूछने के लिये कहा। तब मत्स्येंद्रनाथ जी ने माँ से विनती की, कि माँ अपना एक कुमारी स्वरूप नेपाल में ही रहने दे तथा अन्य स्वरूपों में हिमालय में विचरण करे। फिर, वहाँ से माँ अभी के उत्तराखंड के गढ़वाल इलाके में गयी। काफी समय वहाँ रहने पर , माँ किन्नर मंडल (किन्नौर) से होते हुए कुल्लुत मंडल गयी। तभी से माँ कुल्लुत मंडल में विराजमान है।

इस तरह माँ का एक कुमारी रूप नेपाल में है तथा अन्य रूप महाहिमालय के कुल्लुत मंडल में है।

माँ काकामाचारिणीनामक और एक रूप है। उनको वाममार्ग में जागृत किया जाता है तथा उपासना की जाती है। उसमें उनके उपासना में चक्र पूजा का प्रयोग होता है तथा कर्मकांड भी वाम मार्गीय पद्धति का है।

कुमारी माँ पार्वती का ही एक स्वरूप है। मत्स्येंद्रनाथ जी ने माँ कुरुकुल्ला को कुमारी के शरीर में जागृत करके कुमारी पूजन की पद्धति शुरू की। तब से इस संबंधी मंत्र, यंत्र तथा कुमारी का चयन करने की विधियां सिद्धो को दी गयी। सिद्ध धर्म में कुमार पूजन की भी परंपरा है,  इसमें स्वतंत्र भैरव तथा अन्य भैरवों की उपासना की जाती है।

कुमारी ‘मनोमयी’ भी होती है। इसमें देवी के कुमारी रूप की कल्पना की जाती है तथा उनकी उपासना की जाती है। देवी तोतला ही मनोमयी कुमारी है। योगी इस स्वरूप पर ध्यान करके इसकी उपासना करते है। तांत्रिक इसी को भाव पुरुष अथवा भाव स्त्री कहते है।

तारा महाविद्या के रूप में माँ कुरुकुल्ला।

सिद्ध धर्म के अनुसार, जब योगमाया जी ने स्वयं को दस स्वरूपो में विभाजित किया, तब , देवी को एक लाल रंग का रुप निर्माण करने की इच्छा हुई। तब माँ कुरुकुल्ला ने ऐसा स्वरूप धारण किया। जब माँ कुरुकुल्ला , माँ काली और माँ तारा के संपर्क में आयी तब , वह माँ तारा के 21 स्वरूपों में से एक हुई। माँ कुरुकुल्ला को रक्त तारा से जोडा जाता है। यह सभी स्वरूप माँ योगमाया के ही स्वरूप है।

माँ कुरुकुल्ला के जन मोहिनी नामक स्वरूप में वो सभी को सम्मोहित करके इच्छाओं में अटकाती है। माँ कुरुकुल्ला ही माँ तारा के 21 स्वरूपों में से एक स्वरूप के रूप में विद्यमान है।

बौद्ध धर्म में माँ कुरुकुल्ला को एक डाकिनी माना गया है। माँ के तामसिक रूप में उनको एक डाकिनी माना गया है क्योंकि वो सबको अपने माया में बांधती है। माँ कोई डाकिनी नहीं है अपितु, मात्र डाकिनी जैसा व्यवहार किसी विशिष्ट रूप में ही करती है। माँ तारा के कार्य करने के लिये ही वह डाकिनी का कार्य करती है। माँ तारा का कार्य करने के लिये माँ कुरुकुल्ला एक डाकिनी का स्वरूप धारण करती है तथा सबको अपनी माया में खींचती है।

कुरुकुल्ला, कुमारी और तोतला देवी।

समस्त कुलों का ज्ञान निर्माण करने वाली माँ कुरुकुल्ला ही योगमाया है। उनका कोई एक निश्चित स्वरूप नहीं है। पर अपने इच्छा के अनुसार, निर्माण, पालन और संहार का कार्य करने के लिए ही वो सुकुल्ला, कुरुकुल्ला और विकुल्ला का रूप धारण करती है। 

माँ कुरुकुल्ला की उपासना करने हेतु उन्हें मानवीय स्त्री के शरीर में जागृत किया जाता है। भगवान शिव ने जब यह कहा कि, कुमारी ही शक्ति का सबसे प्रबल स्वरूप है तब माँ ने कुमारी का रूप धारण कर लिया। वही कुमारी प्रथम कुमारी है। योगी और तांत्रिक,  माँ कुरुकुल्ला को कुमारी के रूप में ध्यान करते है उसी को मनोमयी कुमारी कहा गया है।

तोतला देवी ही मनोमयी कुमारी है। उनके कोई भैरव नहीं है। तोतला देवी पर्वतों पर रहती है तथा अपने भक्तों को अन्न और धान्य प्रदान करती है। तोतला देवी जी रोगों का नाश करती है। वो प्रेम और ममता प्रदान करती है। तोतला देवी जी को एक तुतलाने वाले बालिका के रूप में दिखाया गया है। इसी कारण उनका नाम ‘तोतला’ है। इससे उनका स्नेह और मासूमियत दिखती है। उनको तीन चार साल की बालिका के रूप में दर्शाया जाता है। नेपाल से गढ़वाल और गढ़वाल से कुल्लूत मंडल जाने वाली कुमारी से भी तोतला जी को जोड़ा जाता है।

माँ कुरुकुल्ला की मोहिनी और विरहिणी विद्या।

मोहिनी और विरहिणी यह दो माँ कुरुकुल्ला की प्रबल शक्तियां है। इन शक्तियों का उपयोग माँ जीवो पर और सकल ब्रह्मांड पर एक शस्त्र की तरह करती है। इन शक्तियों को विद्या कहा जाता है तथा उनकी तंत्र पद्धति भी है। इनको मोहिनी विद्या और विरहिणी विद्या कहा जाता है। मोह और विरह यह दो इन विद्याओं के शस्त्र है। मोह मतलब आसक्ति है और यही सारे दुख का कारण है।

विरह में किसी बात की तृष्णा होती है। यह मोह की दूसरी बाजू है। इसमें व्यक्ति किसी को खोने की भावना में जीता है। इसमें किसी से अलग होने की भावना होती है।

मोहिनी विद्या प्रेम और सुंदरता से जुड़ी हुई है। इसमें सुंदरता, प्रेम, एकात्मता इस तरह की भावनाओं का समावेश होता है। अकसर, लोग माँ कुरुकुल्ला की इस विद्या में फसे होते है।

माँ नहीं चाहती कि, कोई भी उनके आकर्षक मोहिनी विद्या से मुक्त हो।

वो इंसान को प्रेम करने के लिये प्रेरित करती है। वो मनुष्य को ऐसा मानने के लिये प्रेरित करती है कि, प्रेम ही सब कुछ है और सुंदरता , अलंकार और उसका उत्सव ही सब कुछ है।  जब कोई माँ के मोहिनी विद्या के प्रभाव से बाहर निकलता है तब देवी उसे विरहिणी विद्या में बांधे रखती है। वह नहीं चाहती कि कोई भी उसको माया का त्याग करे। इस प्रकार देवी की मोहिनी विद्या से बाहर निकला हुआ व्यक्ति विरहिणी विद्या के कारण किसी की आस या अलग होने की भावना में रहता है। यह माँ की विरहिणी विद्या है। इसका प्रयोग वो किसी को मुक्त होने से रोकने के लिए करती है।

माँ कुरुकुल्ला के भक्त ऐसा मानते है कि, मनुष्य के लिये प्रेम बहुत ही दुर्लभ है। एक सिद्ध बने बिना किसी इंसान के लिये प्रेम को समझना संभव नहीं है। एक सामान्य मनुष्य जो प्रेम अनुभव करता है वह असल में मोहिनी विद्या का मोहिनी पाश है। माँ के माया के कारण ही एक मनुष्य को किसी के प्रेम में होने का वहम उत्पन्न होता है। जबकि वह प्रेम नहीं होता है तथा कुरुकुल्ला के द्वारा बनाया हुआ एक खेल का हिस्सा होता है।

कुरुकुल्ला, राहु नामक दैत्य का दमन और समुद्र मंथन।

सिद्ध धर्म के एक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के वक्त भगवान विष्णु जी ने अपने मोहिनी अवतार में दैत्यों को सम्मोहित करने के लिये माँ कुरुकुल्ला के ही मोहिनी विद्या का उपयोग किया था। समुद्र मंथन के वक्त , आखरी में अमृत प्राप्त हुआ। जिस तरह दूध को मथने पर अंत मे घी मिलता है ठीक उसी तरह समुद्र मंथन से अंत मे अमृत प्राप्त हुआ। जब देव और दैत्य दोनों भी उन्माद में थे , तब राहु नामक दैत्य अमृत लेकर भाग गया। पश्चात भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र द्वारा इस दैत्य के दो टुकड़े कर दिए गए। जब भगवान विष्णु जी यह बात समझी की अगर दैत्यों को अमृत मिला तो बहुत बड़ी समस्या निर्माण होगी। इस कारण, तीनों लोकों के कल्याण के लिए, भगवान विष्णु जी ने मोहिनी अवतार धारण किया तथा सारे दैत्यों को सम्मोहित किया।

मोहिनी अवतार धारी भगवान विष्णु जी ने दैत्यों को अमृत के नाम पर ‘सूरा’ मतलब शराब पिला दी। तथा देवताओं को अमृत पिला दिया। इस प्रकार देवता अमर हो गए और दैत्यों का नाश हुआ।

इसी कारण , सिद्ध धर्म माँ के एक चित्र में माँ को दैत्य राहु के ऊपर खड़ी रही हुए दिखाया गया है। क्योंकि, भगवान विष्णु जी ने अपने मोहिनी अवतार में मोहिनी विद्या को जागृत किया था। इस कारण तीनों लोकों का कल्याण हुआ और देवताओं की मदत की गयी ताकि तीनों लोकों का ठीक से पालन हो सके। माँ कुरुकुल्ला की मोहिनी विद्या को राहु के कारण जागृत करना पड़ा था इसके कारण माँ कुरुकुल्ला को राहु के ऊपर खड़ी हुई स्थिति में दिखाया जाता है।

इससे यह भी दर्शित होता है कि, माँ राहु से जुड़े सारे दुर्गुण नष्ट करती है। तथा राहु से बुरे गुणों को सहन नहीं करती।

बुद्ध धर्म तथा माँ कुरुकुल्ला के संबंधी लेखन में कमियां।

आंतरजाल (इंटरनेट) पर ऐसे कई सारे लेख उपलब्ध है जिसमें राहुला, सिंहमुख डाकिनी, एकजटी, वज्रयोगिनी इन देवियों के साथ साथ माँ कुरुकुल्ला को भी वज्रयान की एक प्रमुख देवी माना गया है। महागुरु पद्मसंभव जी माँ कुरुकुल्ला के अनुयायी थे। उन्होंने अपने कई अनुयायियों को माँ कुरुकुल्ला की साधना में दीक्षित किया। उनके द्वारा ही माँ कुरुकुल्ला की उपासना वज्रयान में आई परंतु, उमसे कुछ कमियां रह गयी।

माँ कुरुकुल्ला को डाकिनी मानने वाला लेखन।

कुरुकुल्ला के संबंधी लेखन में उनको डाकिनी माना गया है यही कुरुकुल्ला संबंधी लेखन में प्रथम कमी है। सिद्ध धर्म मानता है कि, माँ कुरुकुल्ला के अनेक स्वरूप है जिसमें से एक स्वरूप ‘डाकिनी’ स्वरूप है। परंतु, मूल स्वरूप में माँ कुरुकुल्ला स्वयं में योगमाया ही है। मार्कण्डेय पुराण में, माँ योगमाया दैत्यों को जवाब देते हुए कहती है कि, ‘स्त्रिया सकल समस्त जगत्सु’,। इसका मतलब यह है कि, योगमाया के सिवा अन्य कोई स्त्री नहीं है। योगमाया के ही सारे रूप है।

जैसे माँ तारा के 21 स्वरूप है तथा ‘वार्ताली’ देवी जैसे कुछ अन्य छोटे स्वरूप भी है। उसी प्रकार माँ कुरुकुल्ला के भी अनेक स्वरूप है। जिस तरह माँ तारा को मात्र वार्ताली नहीं समज़ा जा सकता ठीक उसी तरह से माँ कुरुकुल्ला को मात्र डाकिनी समझना गलत है। जिस माँ कुरुकुल्ला की वो इतनी वंदना करते है उसको डाकिनी कहने से माँ का कुप्रचार होता है।

माँ कुरुकुल्ला महेश्वर के ऊपर खड़ी है, इस तरह का गलत लेखन।

बौद्ध धर्म ऐसा मानता है कि, माँ कुरुकुल्ला, महेश्वर और उनकी पत्नी के ऊपर खड़ी है। पर यह माँ संबंधी लेखन में पायी जाने वाली दूसरी कमी है। माँ कुरुकुल्ला जिसपर खड़ी है वह महेश्वर नही अपितु, राहु है। इसके बारे के ऊपर लिखा गया है। सामान्य जनमानस को बहुत कम पता होने वाली बात यह है कि,  बौद्ध वज्रयान में ‘महेश्वर बुद्ध जी’ की भी उपासना की जाती है। तथा ‘महेश्वर बुद्ध सशक्तिकरण’ का अभ्यास किया जाता है। पर महेश्वर बुद्ध को गुप्त रखा जाता है क्योंकि, महेश्वर बुद्ध भगवान शिव ही है। यह ठीक वैसे है जैसे अक्षोभ्य शिव माँ तारा के शिव है और वैरोचन शिव माँ छिन्नमस्ता (वज्र वैरोचिनी) के शिव है।

माँ तारा के भगवान महेश्वर पर खड़े रहने की बात में कोई त्तथ्य नही है। क्योंकि, बौद्ध धर्म में महेश्वर जी की वंदना होती है। और जिस महेश्वर शिव की वंदना होती है,।

सिद्ध धर्म मे माँ महाकाली को भगवान शिव के ऊपर खड़ी रही अवस्था में दिखाया गया है। क्योंकि भगवान महाकाल माँ काली को अलग किया जानेपर भगवान महाकाल मात्र एक शव रहते है। परंतु, बौद्ध भगवान महेश्वर को माँ कुरुकुल्ला के पति नहीं माना जाता।

सिद्ध धर्म स्पष्टता से इस बात पर गौर करता है कि, स्वतंत्र भैरव ही माँ कुरुकुल्ला के पति है तथा माँ राहु पर सिर्फ इस कारण खड़ी है क्योंकि, भगवान विष्णु जी ने अपने मोहिनी अवतार में राहु का दमन करने के लिये माँ के मोहिनी विद्या को जागृत किया था। ताकि, दैत्यों को अमृत ना प्राप्त हो।

इसी कारण , सिद्ध धर्म का मत है कि,  माँ के बार में इस तरह का गलत लेखन लंबे समय से आपसी शांती से रह रहे हिंदू और बौद्ध धर्म के आपसी संबंध को खराब करता है। इस कारण,  जिस तरह मोहिनी विद्या ने राहु का दमन किया था, उसी प्रकार इस तरह ले लेखन के कृत्य का दमन करना चाहिए।

कुरुकुल्ला और विपाशा (व्यास नदी)

जब देवर्षि व्यास जी जब कठोर तप करने के लिये हिमालय जा रहे थे। तब, दिव्य कृपा से, उन्हें माँ विपाशा रूपी माँ कुरुकुल्ला की कृपा प्राप्त हुई। ‘विपाशा’ मतलब सारे पाशो से मुक्त करने वाली।

सिद्ध धर्म के अनुसार, कुरुकुल्ला माँ अपनी योगिनियों और स्वतंत्र भैरव के साथ क्रीड़ा कर रही थी। जब वो नृत्य में मग्न थी तब ऋषि व्यास को वहाँ आए। जब योगिनियों ने ऋषि जी को मानसिक संताप तथा शारीरिक थकान की अवस्था में देखा, तब उन्होंने ऋषि व्यास जी को परम डाकिनी माँ कुरुकुल्ला से प्रार्थना करके स्वयं को दुख से मुक्त करने के लिये कहा।

जब विपाशा जी ने ऋषि व्यास जी पर कृपा की तब ऋषि जी की विनती से माँ कुरुकुल्ला ने अपने व्यास नदी रूप को जगत को प्रदान किया। व्यास नदी का उद्गम हिमालच प्रदेश के व्यास कुंड से होता है। विपाशा देवी जी के बारे मे अधिक जानकारी आपको इस लिंक पर प्राप्त होगी।

कुरुकुल्ला और वज्र मंडल।

सिद्ध धर्म के अनुसार , ‘वज्र मंडल’ यह एक समानांतर ब्रह्मांड है। तथा उसमे सारे सिद्ध रहते है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, महासिद्ध मार्कण्डेय नाथ जी ने सबसे पहले पृथ्वीपर प्रलय और फिरसे होने वाला नवनिर्माण देखा। यह सब उन्होंने ‘वज्र मंडल’ से देखा।

सिद्ध धर्म ऐसा मानता है कि, वज्र वैरोचिनी, वज्रिका और वज्र योगिनी की तरह माँ कुरुकुल्ला भी वज्र मंडल की रक्षक शक्ति है। वज्र मंडल में प्रवेश करने हेतु, ऊपर उल्लेखित किसी भी एक शक्ति के कृपा की आवश्यकता है।

सिद्ध धर्म की एक कथा के अनुसार, देवराज इंद्र जब वज्र मंडल में प्रवेश करने की कोशिश कर रहे थे तब, वज्र वैरोचिनी जी ने उनको प्रवेश नहीं दिया। तब इंद्र जी ने उनपर अपने वज्र से प्रहार किया,  इस झगड़े में इंद्रदेव का वज्र टूट गया तब उनको वापस लौटना पड़ा।

कुरुकुल्ला : उड्डियान पीठ की एक डाकिनी।

सिद्ध धर्म के अनुसार, पाकिस्तान के उत्तरी दिशा में स्थित तुर्कमेनिस्तान, कजाखस्तान,  अफगानिस्तान, उजबेकिस्तान, ईरान इन देशों के प्रदेश को उड्डियान पीठ कहते है। इस प्रदेश को महा उड्डियान कहते है। बौद्ध तंत्र के अनुसार, माँ कुरुकुल्ला जी इस प्रदेश से है। पर सिद्ध धर्म इस बात को सहमती नहीं देता।

सिद्ध धर्म के अनुसार, कुल्लू नामक जगह का नाम उसे ‘कुल्लुता मंडल’ से प्राप्त हुआ है तथा कुल्लुता मंडल को उसका नाम माँ कुरुकुल्ला से प्राप्त हुआ है। कुल्लुता मंडल यह एक भौतिक और गुप्त स्थान है जो हिमाचल प्रदेश के उत्तरी भाग में स्थित है। ‘शारदा मंडल’,  ‘कुल्लुता मंडल’, और ‘कामरूपा’ यह कौल तंत्र के प्रमुख केंद्र है। इन तीनों में से कुल्लुता मंडल माँ कुरुकुल्ला के द्वारा शासित है।

सिद्ध धर्म के अनुसार, उड्डियान पीठ की डाकिनियों से कोई भी संबंध बनाना नहीं चाहता तब, उन डाकिनियों ने माँ कुरुकुल्ला से उनकी नायिका बनने की विनती की। माँ कुरुकुल्ला और सम्पूर्ण कौलांतक पीठ ने देवों और दैत्यों, महासिद्ध शुक्राचार्य और महासिद्ध बृहस्पति तथा सत्व, रज और तम इनमें से किसी में भी कोई भेद नहीं किया। तो, माँ कुरुकुल्ला ने डाकिनियों की विनती स्वीकार की इसी कारण माँ कुरुकुल्ला को उड्डियान पीठ की एक डाकिनी माना गया। पर उनका मूल स्थान उड्डियान पीठ है ऐसा मानना गलत है।

शपुत्र द्वारा दी गयी श्री कुरुकुल्ला सुकुल्ला प्रभात स्तुति।

।। श्री कुरुकुल्ला सुकुल्ला प्रभात स्तुति।।

शुभप्रभातं सुप्रभातं कुरुकुल्ला देव्यै नम:
नमस्कारं नमस्कारं सुकुल्ला दैव्यै नम: ।

शान्तिं प्रयच्छ मे! ज्ञानं प्रयच्छ मे!
ऋद्धिं प्रयच्छ मे! सिद्धिं प्रयच्छ मे!

धनं-धान्यं, भोगं-मोक्षं, यशं देहि मे!
नमस्कारं नमस्कारं सुकुल्ला दैव्यै नम: ।

शुभप्रभातम सुप्रभातम कुरुकुल्लादेव्यै नम:
नमस्कारं नमस्कारं सुकुल्ला दैव्यै नम: ।

क्लीं क्लीं ह्रीं ह्रीं ऐं हुं रक्त तारायै नम:
तोतले तुरे तारे तरले कुलनायिके,

कल्याणं कुरु देवी सौंदर्य रूपवर्धिनी
नमस्तुभ्यं ईप्सितप्रदे सर्वकामप्रदायिनी,

त्रैलोक्यविजयिनी देवी सर्वमुग्धे नमो नम:,
वर अभयदात्री देवी सर्वदा सुमंगलकारिणी,

नमो नमो कुरुकुल्ले सर्वदुःख विनाशिनी
अनंता अक्षरा नित्या महाकौतुककारिणी,

अकालमृत्यु प्रशमनी सर्व शत्रु निवारिणी
त्राहि माम कुरुकुल्ले! सुकुल्ले नमोस्तुते!

सामर्थ्य शक्ति प्रदायिनी पुष्प धनुधारिणी
श्री कामकला देवी कालकालेश्वरी नमो नम: ।

नमस्कारं नमस्कारं सुकुल्ला दैव्यै नम:
शुभप्रभातम सुप्रभातम कुरुकुल्लादेव्यै नम: ।

 

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